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________________ वचन-साहित्यमें नीति और धर्म करनेका-सा, बोलकर भी न बोलनेका-सा, भोगकर भी न भोगनेका-सा, निराभार, अनासक्त जीवनका सुंदर पाठ पढ़ानेवाला मार्ग था। वह सतत कर्म करनेका उत्साह और प्रोत्साह देता है की किंतु समर्पणसे कर्मका थकान उतरती है। वह किसी भी भोगसे भागनेकी कायरता नहीं सिखाता किंतु उस भोगको ही परमात्माका प्रसाद बनाकर भोगकी मादकतासे बचाता है । साधकको नम्र . बनाता है । वह किसीको भिक्षा मांगनेका अधिकार नहीं देता। संन्यासीको भी वह भिक्षा मांगनेके अधिकारसे वंचित करता है। वह सबके लिए कायक अनिवार्य मानता है । किंतु वह कायक प्रामाणिक हो । समाज हितकारी हो । कायकमें कोई उच्च-नीचका भाव है ही नहीं। अपना प्रामाणिक लोक-हितकारी कायक नित्य नियमित रूपसे शिवार्पण हो । वचनकारोंने जो सामाजिक जीवनका आदर्श सामने रखा है वह शिवापित, भक्तिपूर्ण, निष्काम, नीतियुक्त कायक द्वारा लोक-हितके अनुकूल व्यक्ति-विकास है। वचनकारोंका सामाजिक आदर्श और सामाजिक विचार देखने से उनकी कल्पनामें जो समाज था उसका सुंदर चित्र हमारी पाखोंके सामने आता है । वह ऐसी समाज-रचना चाहते थे कि समाजमें रहकर लोग मोक्षकी साधना कर सकें । उनके समाजके सदस्य स्वाभाविक रूपसे मोक्षार्थी हों। समाजका वातावरण वे वल स्वांतःसुखाय न हो, जनहिताय भी हो । प्रत्येक मनुष्य यह अनुभव करे कि मैं जिस समाजमें हूं वह मेरी तपोभूमि है। मेरे समाजके सव सदस्य मेरे आध्यात्म-बंधु हैं । समग्र समाज साधक परिवार हो । यही धर्म-मोक्षाभिमुख काम-अर्थ-साधना है। यही निःश्रेयसाभिमुख अभ्युदय है। यही धर्ममय जीवन है । जिससे व्यक्ति-विकासके साथ ही साथ सामूहिक जीवनका सर्वांगीण विकास हो। जिससे मानव, मानवकी मर्यादाका अतिक्रमण करें, और न केवल दिव्यत्वको सीमामें प्रवेश पा जायं अपितु दिव्यत्वके हृदय को भी पा जायं।
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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