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________________ वचन - साहित्य-परिचय 1 वचन यह है 'वेदना का नाम होता है। होती मारिया ?" "मादि नामकी देवता है। यह भयानक और बीग बीमारियोंकी स्वामिनी है। इसलिए मारि चन्द्र गोतरी भी नय घोर होता दिनेवाला है मारि निदान गायकी जो चुभन है यह गोतमें नहीं जाती। उन्होंने का विरोध किया है उनका यह विश्वास है कि हरी चोर की तरह उन्होंने घर और नया भी प्रतिपादन किया है। नीति-नियम बरतेय और कान भी उतने ही महत्व है कि जितने सत्य पर महिमा | अपनी दूरी सी वस्तुकी चोरी न करना अर्थात् किसी वस्तुसे उनके स्वामीको इच्छा के बिना नहीं देना । अधिक का विवेचन करनेपर ऐसा लगता है कि अपने शरीर योर मनके विकास के लिए जितना आवश्यक है, मोर जी श्रावश्यक है, उसने अधिक रखना चोरी है | संग्रह-वृत्ति गोरी है। जिस वस्तुकी श्रावश्यता से अधिक दूसरोंको है उनका राना चोरी है। क्योकि दूसरोंको उनकी अपने यमिक आवश्यकता है। इसलिए अपने लिए जिन चीजोंकी जितनी आवश्यकता है उससे अधिक संग्रह न करना, अधिक गाने पर उसका दान कर देना अस्तेय व्रत है | भगवान ने अपने लिए जितना दिया है उतने में ही साधकको संतुष्ट हो जाना चाहिए। थायासे धनको न छूना ही शील है । वचनकारोंने दूसरोंके धन यादि लेने वालोंको सूब फटकारा है । इसी प्रकार उन्होंने शिक्षावृत्तिका भी विरोध किया है। उनका कहना है कि एक और परमार्थको बातें करना और दूसरी ओर रोटी के टुकड़े के लिए हाथ फैलाना लज्जाकी बात है । उन्होंने कहा है, जिसको देखा उससे गांगने से भगवान प्रसन्न नहीं होता । मांगकर लाया हुआ प्रसाद नहीं कहला सकता क्योंकि यह लिंगार्पण के योग्य नहीं होता । इसलिए उन्होंने अपनी जीविका के लिए 'कायक' का सिद्धांत अपनाया । कायकका अर्थ है, जीविका के लिए किया जाने वाला परमात्मापित शरीर-परिश्रम | उन्होंने लिखा है कि कायकमें ही कैलास है । कायक ही कैलास है । यह तो श्रमको हो राग मानने के समान है । वे कोरे उपदेशक नहीं थे । उपदेश देने में बहुत लोग कुशल होते हैं । उन्होने स्वयं कायकको ग्रपनाया। यहां तक कि समाज में होन माने जानेवाले कामों को भी उन्होंने उठाया । वचनकारोंके सामूहिक व्यक्तित्वका विचार करते समय पिछले परिच्छेद में उनके नामोके साथ उनके व्यवसाय-बोधक चिन्ह भी दिये गये हैं । सभी वचनकार कोई न कोई व्यवसाय अवश्य करते थे । श्रपने व्यवसायसे जो भी कुछ मिलता, वह सब लिंगार्पण कर देते । फिर प्रसाद के रूपमें यह श्रन्य सबको बांटकर खाते | इसको वह 'दासोह' कहते । उन्होंने कभी गरीबीको १२४
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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