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________________ ११० वचन-साहित्य-परिचय अपनी एकांत साधनासे बनाया था। किंतु आगमकारोंने उसको राजमार्ग बनानेका प्रयास किया। उनका मार्ग सबके लिए खुला था। वहां जाति, धर्म, कुल, गोत्र, लिंग आदिका कोई बन्धन नहीं था। सबको खुला निमंत्रण था। इसमें संशय नहीं कि आगमकारोंका मार्ग अपने पूर्वकालीन साधकोंके मार्गसे भिन्न था। किंतु उद्देश्य वही था । वैसे ही सूत्रकारोंने भी साक्षात्कारके भिन्न-भिन्न मार्ग प्रशस्त किये । जैसे पातंजल मुनिने योग सूत्रोंसे ध्यान-योगका मार्ग प्रशस्त किया। नारदने भक्ति-सूत्रोंसे भक्तियोगका निरूपण किया । वैसे ही व्यासके ब्रह्मसूत्रोंने वेदांतका ज्ञान-मार्ग बताया । यह सब इसी आदर्शकी ओर जानेके विविध मार्ग हैं। सूत्रकारोने भी साक्षात्कारको ही लक्ष्य मानकर उस लक्ष्यतक पहुँचने के भिन्नभिन्न मार्ग बतानेवाले ये ग्रंथ लिखे हैं । साक्षात्कारकी दृष्टिसे वैष्णवोंका भागवत पुराण भी कम महत्वका नहीं है। इस देश के साक्षात्कारियोंका तथा साक्षात्कारके मार्गोका विचार करते समय जगद्गुरु शंकराचार्य, श्री रामानुजाचार्य, श्री बल्लभाचार्य, श्री मध्वाचार्य आदि प्राचार्यों को भी भुलाया नहीं जा सकता । वह साक्षात्कारी नहीं थे। मुख्यतः वह तत्वज्ञ थे। दार्शनिक थे । किंतु उन्होंने जो तत्वज्ञान कहा उससे भारत में भक्तिका संप्रदाय बढ़ा । इन भक्तोंने भारतकी भिन्न-भिन्न भाषाओं में अमाप भक्ति-साहित्यका निर्माण किया। घर-घरमें भक्तिकी गंगा बहाई । बंगाल में रामानंद, चंडीदास, गौरांग प्रभ्र आदि संतोंने भक्ति साम्राज्य उभारा तो उत्तर भारत में कबीर, सूरदास, तुलसीदास, मीराबाई आदि संतोंने भक्तिका प्रचार किया। महाराष्ट्रमें ज्ञानदेव, नामदेव, एकनाथ, तुकाराम आदि भक्तोंने वही काम किया जो किसी एक दिन उपनिषद्कारोंने किया था। अब तक साक्षात्कार मार्गके आर्य-मार्गका विचार किया गया। अब द्रविड़ मार्गका विचार करें। इस पुस्तकमें विशेषतः द्रविड़ भाषा-कुलोंमेंसे कन्नड़ भाषाके साक्षात्कार मार्गका विचार करना है। इस विषयमें तामिल भाषाका साहित्य प्राद्य साहित्य कहा जा सकता है। तामि न साहित्य अत्यन्त संपन्न साहित्य है। संस्कृत को छोड़कर अन्य किसी भी भाषाका साहित्य इतना संपन्न नहीं है। ईसामसीहसे पहले से ही वहां साक्षात्कारके दो मार्ग प्रचलित थे। एक 'मालवरों' का और दूसरा 'अरिवरों' का अथवा इन दो नामोंसे साक्षात्कारी अथवा अनुभावी वर्ग प्रचलित था । 'पालवर' का अर्थ होता है 'डूबा हुआ', तल्लीन अर्थात् तन्मय । कुछ लोग 'पालवर' का अर्थ नम्र भी करते हैं। कुछ लोग 'पालवर' का अर्थ शासक भी करते हैं। किंतु पालवरका वास्तविक अर्थ होता है तन्मयसत्य-तन्मय । यह वैष्णव थे । 'अरिवर' का अर्थ होता है 'अरियुववरु' अर्थात् .
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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