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________________ १०८ वचन-साहित्य-परिचय साक्षात्कारके लिए देश, काल, परिस्थितिका कोई बंधन नहीं है। विश्वके प्रत्येक देशमें, विशाल मानव-कुलकी प्रत्येक शाखामें ऐसे साक्षात्कारी हुए हैं। उनकी अपनी परंपरा है । इस परंपराके पूर्वेतिहासकी ओर संकेत करना भी असंभव है। हमारे इस विशाल देशके किसी एक राज्यके साक्षात्कारकी परंपराका इतिहास देना चाहें तो भी वह एक बड़ा भारी ग्रंथ हो जाएगा। यह विषय सागर-सा गहरा है और आकाश-सा विशाल । वैसे ही अत्यंत महत्त्वपूर्ण भी है । वेद हमारे देशके अत्यंत प्राचीनतम ग्रंथ हैं। उनके वारेमें कहते हैं कि वे अशरीर वाणी सुनकर कहे गये थे । इसलिए उनको श्रुति कहते हैं । उन्हें कहने वाले ऋपियोंको मंत्रद्रष्टा कहा गया है। वेदके ऋषियोंको वह मंत्र प्रत्यक्ष हुए। वे इस सत्यको प्रकाशमें लानेवाले प्रकाशक थे। उन्होंने अपने अंतःकरणमें इस सत्यको, अथवा वेदवारणीको प्रत्यक्ष किया । अर्थात् उनको सत्य ज्ञानका साक्षात्कार हुआ । इस प्रकार साक्षात्कारकी परंपरा वेदकाल तक पहेंचती है। उसके वाद हैं उपनिषद् । उनमें भी इस मार्गको 'क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्ययः' कहा है। 'दुर्गम पथ' कहा है। उपनिषद् तो आत्यंतिक सत्य-दर्शनके तत्व ज्ञानकी उद्गम-स्थली है । आगे महुलाये हुए सभी मार्गोंके बीज उपनिषदोंमें मिलते हैं । उपनिषदोमें इस आत्यंतिक सत्यको परमात्म, ब्रह्म-प्रात्म, परब्रह्म आदि कहा है । उपनिषद्कार कहते हैं, यदि वह जाना तो इस जगतमें जानने योग्य कुछ भी शेप नहीं रहता। यह सत्य सूक्ष्मसे-सूक्ष्म है। स्थूलसे स्थूल है । इसका रूप अनंत, सत्य-संकल्प, सर्वसाक्षी आदि है। उस तत्वका साक्षात्कार ही जीवनका प्रात्यंतिक लक्ष्य है । ईशावास्योपनिषद्का ऋषि आह्वानपूर्वक कहता है कि यह समग्र विश्व परमात्माका निवासस्थान है । सर्वात्मरूप है। तू इसका अनुभव कर । समग्र विश्वमें एकत्वका अनुभव करनेवालेको कहांका मोह और कहाँका शोक ? इसके साथ-साथ वह सूर्य से प्रार्थना करता है कि इस मोहक सुनहले ढक्कनसे ढके हुए सत्य स्वरूपको मुझे दिखा। यात्म-स्वरूप इंद्रिय, मन आदिकी पकड़ में नहीं पाता। उसका अनुभव अवर्णनीय है। स्फूर्त है। ऐसा भी वह कहते हैं । कठोपनिषदें कहा है, साक्षात्कारी कभी प्रात्म-स्वरूपका ज्ञान दूसरों को कह नहीं सकता। मनुप्य आत्म-ज्योतिके प्रकाशमें सब कुछ करता है । उस आत्माको अनुभवसे जानना होता है। यह वृहदारण्यकमें याज्ञवल्कने जनक राजासे कहा है । उपनिपदोंमें साक्षात्कारका सुन्दर विवेचन भी है। केनोपनिपद्में इन्द्रको साक्षात्कारसे ब्रह्मज्ञान होनेकी बात कही गयी है। इतना ही नहीं, साक्षात्कार होने के बाद साक्षास्कारीमें होने वाले परिणामोंका भी वर्णन है। उसमें कहा गया है- साक्षात्कार होनेके बाद मनुप्यको जाननेके लिए कुछ भी नहीं रहता। उसके सभी संशय निरसन हो जाते हैं । उसकी सब नथियां खुल जाती हैं। ऐसा मुंडकोपनिषद् में
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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