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________________ साक्षात्कार . १०५ वचनकारोंका मार्ग ही साक्षात्कारका मार्ग था । सत्यका साक्षात्कार करना, उस साक्षात्कारमें स्थित रहना, यही उनका अंतिम लक्ष्य था । जैसे हमारी अांखें सूर्य, चंद्र, नक्षत्र, इंद्रधनुष आदि देखती हैं वैसे ही स्फूर्तिसे वे सत्यको देखते थे। जैसे हमारी नाक फूल, फल आदिकी सुगंध सूंघती है वैसे वे स्फूर्तिसे सत्यको ग्रहण करते थे। जैसे हमारे कान नदीका कल-कल, हवाका मर्मर, वर्षाका टप-टप सुनते हैं वैसे ही वह अपनी स्फूर्तिसे सत्यको सुनते थे। जैसे हमारी जिह्वा षड्रसान्नको अपनी नोकसे चखती है वैसे ही वे स्फूतिसे सत्यको चखते थे। अनुभावी साधक अपने अंत:करणकी स्फूर्तिसे सर्वांगीण अनुभव करते हैं। मनुष्यको एक वार ऐसा साक्षात्कार हुआ कि बस उसके मनके संकल्प विकल्प मिटते हैं । क्षुद्र आशा आकांक्षाएं अश्य होती हैं। जैसे सूर्योदय होते ही अंधकार अदृश्य होता है ऐसे ही साक्षात्कारीका जीवन कृतकृत्य हो जाता है। मन कभी शंकाकुशंकायोंके जाल में नहीं फंसता । संकल्प-विकल्पके जाल में नहीं फंसता । दुपहरकी प्रचंड धूपमें सूर्यको देखनेके पश्चात् जैसे सूर्यके अस्तित्व और उसके गुण, धर्मके विषयमें कोई संशय नहीं होता वैसे ही परमात्माके विषयमें कोई संशय नहीं रहता । आत्मज्ञान मानो करतलामलक-सा हो जाता है । यह साक्षात्कार दो प्रकारका होता है। प्रथम, जैसे बिजली क्षण भर बादलोंमें चमक कर अदृश्य हो जाती है वैसे ही सत्यकी झलक मिलती है। इससे साधककी साधनामें उत्कटता आती है। उसकी व्याकुलता तीव्र होती है। उसकी ध्येय-निष्ठा हढ़ हो जाती है और साधक अपने साध्यको पाने के लिए व्याकुल हो उठता है । उसकी व्याकुलता तीबसे तीव्रतर और तीव्रतम होती जाती है। उसकी उस उत्कट व्याकुलताकी कोई उपमा नहीं होती। वह अपने मार्गकी सभी रुकावटोंको ठीक वैसे ही हटा कर आगे बढ़ने लगता है जैसे पर्वतीय प्रदेश के किसी गहरे उतारमें बहने वाला नदी-प्रबाह । चुंबकसे खिंच जानेवाला लोहा जैसे सभी रुकावटोंको हटाकर चुंबकसे सट जाता है वैसे ही अज्ञात प्रेमातिशयसे वह भगवानकी मोर सतत खिचता जाता है। इससे साधककी स्फूतिके सामने विद्युत्की तरह क्षण भर चमककर गया हुआ वह साक्षात्कार सूर्य के प्रकाशकी तरह स्थिर हो जाता है। विद्युत् की तरह क्षण भरके लिए जो साक्षात्कार होता है वह इतना सुखद होता है कि साधक उसको स्थिर कर लेनेके लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर देता है। यह सब कुछ न्योछावर करनेकी तीव्र उत्कंठा ही संपूर्ण समर्पण है। उस उत्कंठासे साक्षात्कार स्थिर हो जाता है। साक्षात्कारजन्य आनंद स्थिर हो जाता है । वस्तुतः विद्युत् सहश चमकनेवाला साक्षात्कार वृत्तिरूप होता है। फिर वही स्थिति हो जाती है। तब वह साधक न रहकर सिद्ध कहलाता है और जीवन में जो कुछ पाना होता
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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