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________________ ६६ वचन-साहित्य-परिचय शुद्धिके चित्त एकाग्न कैसे होगा ? ईश्वरार्पण जीवन शुद्धिकरणका सुंदरतम साधन है । ऐसी स्थितिमें साधक कहता है, मेरा कुछ रहा ही नहीं। सव कुछ तेरा है । मैं भी तेरा हूं। तू जैसे रखेगा वैसे रहूँगा। जो करायेगा वह करूंगा । जैसे नचायेगा वैसे नाचूंगा । इस तरह वह परमात्माका खिलौना वन जाएगा। वह निरहंकारी बनेगा। नम्र बनेगा। उसका कोई संकल्प नहीं रहेगा । भगवद् संकल्प ही उसका संकल्पं बनेगा। तब वह निराभार वनेगा। निष्काम बनेगा। अनासक्त बनेगा। उसकी सारी शक्तियां जिनसे उसको शाश्वत सुखकी खोज करनी है, स्वाभाविक रूपसे अनजाने ही शुद्ध, शुद्धतर, शुद्धतम होती जाएंगी। शुद्ध साधनोंसे शुद्ध साध्य प्राप्त होगा। साधक सिद्ध बनेगा। ___ वचनकारोंके इस शरण मार्गमें सर्पिण भाव मुख्य है । यह सर्पिण भाव सहज साध्य नहीं है। इसके लिए उत्कट ध्येय-निष्ठाकी आवश्यकता है, दृढ़ संकल्पशक्तिकी आवश्यकता है । सर्वार्पण अथवा शिवार्पण का अर्थ अपने प्रात्मविकासके सभी सूत्रोंके स्वामित्वका त्याग है। उत्कटतम ध्येय-निष्ठासे ही यह संभव हो सकता है । इस ध्येय-निष्ठाके लिए सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि यम-नियमोंका पालन आवश्यक है। यही सब प्रकारके योग-मार्गका आधार है । जो मनुष्य अपने सामान्य जीवनमें सत्य-असत्यका विचार नहीं करता, हिंसा-अहिंसाका विचार नहीं करता, दूसरोंको लूटकर अपना घर भरता रहता है, अथवा दूसरोंके खूनसे अपनी शान बढ़ाता रहता है वह भला विश्वके मूलमें जो आत्यंतिक सत्य तत्त्व है उसकी खोज क्या करेगा ? जो प्रत्यक्ष दीखनेवाला सत्य नहीं जान सकता अथवा जानकर भी उसकी उपेक्षा करता है वह थला किसी इन्द्रिय और मनके लिए भी अगोचर सत्यको क्या पावेगा ? अर्थात् किसी भी साधना मार्गपर कदम रखनेसे पहले, सर्व समर्पणसे भी पहले यमनियमोंका पालन आवश्यक है । यही साधना पथका संबल है। यही साधना पयका पाथेय है। इसीलिए वचनकारोंने तथा योगमार्गके अन्य आचार्योंने इसको प्रत्यंत महत्व दिया है । शरण-मार्गके, अथवा समन्वय-योगके साधकके लिए सबसे प्रथम सत्यान्वेषणकी उत्कटतम इच्छाकी आवश्यकता है। उसके अनंतर उसको उतनी ही उत्कट ध्येय-निष्ठासे, दृढ़ संकल्पसे यम-नियमसे युक्त अपनी सब शक्तियोंको भगवदर्पण करना होगा । बादमें यदि वह प्राणशक्तिके द्वारा साधना प्रारंभ करना चाहता है तो स्नान, आसन, प्राणायाम, नेती, धौती, वस्ति, नौली आदि क्रियाओंसे शरीरका अंतरबाह्य शुद्ध करना होगा। प्रारणायाम, भस्त्रिका, पूरक, कुंभक, रेचक तथा मूलबंध, जालंधर-बंध, उड्डियान-बंध आदि क्रियाओंसे कुंडलिनी शक्तिको जागृत करना होगा। फिर वह जागृत
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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