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________________ उत्तरखण्ड] . त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा प्रन्थका उपसंहार . . वहाँ बैठे हुए महर्षियोंमें इस विषयपर महान् चुपचाप वे उनके सामने खड़े रहे। किन्तु ब्रह्माजीने उन वाद-विवाद हुआ। किन्हीं महर्षियोंने केवल रुद्रको मुनिश्रेष्ठको आया हुआ देखकर भी उनका कुछ सत्कार सर्वश्रेष्ठ बतलाया। कोई कहने लगे-ब्रह्माजी ही नहीं किया। उनसे प्रिय वचनतक नहीं कहा। उस समय पूजनीय हैं। कुछ लोगोंने कहा- सूर्य ही सब जीवोंके ब्रह्माजी कमलके आसनपर महान् ऐश्वर्यके साथ बैठे हुए पूजनीय है तथा कुछ दूसरे ब्राह्मणोंने अपनी सम्मति इस थे। तब महातेजस्वी महर्षिने लोक-पितामह ब्रह्मासे प्रकार प्रकट की-आदि-अन्तसे रहित भगवान् विष्णु कहा-'आप महान् रजोगुणसे युक्त होकर मेरी ही परमेश्वर हैं। वे ही सब देवताओंमें श्रेष्ठ एवं पूजन अवहेलना कर रहे हैं, इसलिये आजसे समस्त संसारके करनेके योग्य हैं। इस प्रकार विवाद करते हुए महर्षियोंसे लिये आप अपूज्य हो जायेंगे।' स्वायम्भुव मनुने कहा-'वे जो शुद्ध-सत्वमय, लोकपूजित महात्मा ब्रह्माजीको ऐसा शाप देकर कल्याणमय गुणोंसे युक्त, कमलके समान नेत्रोंवाले, महर्षि भृगु सहसा क्षीरसागरके उत्तर तटपर श्रीविष्णुके श्रीदेवीके स्वामी भगवान् पुरुषोत्तम हैं-एकमात्र वे ही लोकमें गये। वहाँ जो महात्मा पुरुष रहते थे, उन्होंने वेदवेत्ता ब्राह्मणोंद्वारा पूजित है।' भृगुजीका यथायोग्य सत्कार किया। उस लोकमें कहीं मनुकी यह बात सुनकर सब महर्षियोंने हाथ भी उनके लिये रोक-टोक नहीं हुई। वे भगवान्के जोड़कर तपोनिधि भृगुजीसे कहा-'सुव्रत ! आप ही अन्तःपुरमें बेधड़क चले गये। वहाँ उन्होंने सूर्यके समान हमलोगोंका सन्देह दूर करनेमें समर्थ हैं। आप ब्रह्मा, तेजस्वी विमल विमानमें शेषनागकी शय्यापर सोये हुए विष्णु तथा महादेव-तीनों देवताओंके पास जाइये।' भगवान् लक्ष्मीपतिको देखा । लक्ष्मी अपने करकमलोंसे उनके ऐसा कहनेपर मुनिश्रेष्ठ भृगु तुरंत ही कैलास भगवान्के दोनों चरणोंकी सेवा कर रही थीं। उन्हें पर्वतपर गये। भगवान् शङ्करके गृहद्वारपर पहुंचकर देखकर मुनिश्रेष्ठ भृगु अकारण कुपित हो उठे और उन्होंने देखा-महाभयंकर रूपवाले नन्दी हाथमें त्रिशूल उन्होंने भगवान्के शोभायमान वक्षःस्थलपर अपने बायें लिये खड़े हैं। भृगुजीने उनसे कहा-'मेरा नाम भृगु है, चरणसे प्रहार किया। भगवान् तुरंत उठ बैठे और मैं ब्राह्मण हूँ और देवश्रेष्ठ महादेवजीका दर्शन करनेके प्रसन्नतापूर्वक बोले-'आज मैं धन्य हो गया।' ऐसा लिये यहाँ आया हूँ। आप भगवान् शङ्करको शीघ्र ही मेरे कहकर वे हर्षके साथ अपने दो हाथोंसे महर्षिके चरण आनेकी सूचना दें।' यह सुनकर समस्त शिवगणोंके दबाने लगे। धीरे-धीरे चरण दबाकर उन्होंने मधुर स्वामी नन्दीने उन अमिततेजस्वी महर्षिसे कठोर वाणीमें वाणीमें कहा-'ब्रह्मर्षे ! आज मैं धन्य और कृतकृत्य कहा-'अरे ! इस समय भगवान्के पास तुम नहीं हो गया। मेरे शरीरमें आपके चरणोंका स्पर्श होनेसे पहुँच सकते। अभी भगवान् शङ्कर देवीके साथ मेरा बड़ा मङ्गल होगा। जो समस्त सम्पत्तिकी प्राप्तिके क्रीडाभवनमें हैं। यदि जीवित रहना चाहते हो तो लौट कारण तथा अपार संसारसागरसे पार होनेके लिये सेतुके जाओ, लौट जाओ।' समान हैं, वे ब्राह्मणोंकी चरण-धूलियाँ मुझे सदा पवित्र तब भृगुने कुपित होकर कहा- 'ये रुद्र तमोगुणसे करती रहें।' युक्त होकर अपने द्वारपर आये हुए मुझ ब्राह्मणको नहीं ऐसा कहकर भगवान् जनार्दनने लक्ष्मीदेवीके साथ जानते हैं। इसलिये इन्हें दिया हुआ अन्न, जल, फूल, सहसा उठकर दिव्य माला और चन्दन आदिके द्वारा हविष्य तथा निर्माल्य-सब कुछ अभक्ष्य हो जायगा।' भक्तिपूर्वक भृगुजीका पूजन किया। उनको इस रूपमें इस प्रकार भगवान् शिवको शाप देकर भृगु ब्रह्मलोकमें देखकर मुनिश्रेष्ठ भृगुजीके नेत्रोंमें आनन्दके आँसू भर गये। वहाँ ब्रह्माजी सब देवताओंके साथ बैठे हुए थे। आये। उन्होंने आसनसे उठकर करुणासागर भगवान्को उन्हें देख भृगुजीने हाथ जोड़कर प्रणाम किया और प्रणाम किया और हाथ जोड़कर कहा-'अहो !
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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