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________________ . अर्थयस्व हवीकेश यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पद्यपुराण . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . भगवद्भक्तोंमें श्रेष्ठ पुरुष भगवान्के 'नित्य भक्तों के विष्णु विराजमान हैं, जो कोटि चन्द्रमाओंके समान उद्देश्यसे उनके नाम ले-लेकर आहुति दे। पहले क्रमशः प्रकाशमान हो रहे हैं। उनके चार भुजाएँ, सुन्दर श्रीअङ्ग भूदेवी, लीलादेवी और विमला आदि शक्तियाँ होमकी तथा हाथोंमें शङ्ख, चक्र और गदा है। पद्य-पत्रके समान अधिकारिणी हैं। फिर अनन्त, गरुड आदि, तदनन्तर विशाल नेत्र शोभा पा रहे हैं। वे समस्त शुभ लक्षणोसे वासुदेव आदि, तत्पश्चात् शक्ति आदि, इनके बाद केशव सम्पन्न दिखायी देते हैं। उनके हृदयमें श्रीवत्सका चिह्न आदि विग्रह, संकर्षण आदि व्यूह, मत्स्य-कूर्म आदि है, वहीं कौस्तुभमणिका प्रकाश छा रहा है। भगवान् पीत अवतार, चक्र आदि आयुध, कुमुद आदि देवता, चन्द्र वस्त्र, विचित्र आभूषण, दिव्य शृङ्गार, दिव्य चन्दन, आदि देव, इन्द्र आदि लोकपाल तथा धर्म आदि देवता दिव्य पुष्प, कोमल तुलसीदल और वनमालासे विभूषित क्रमशः होमके अधिकारी हैं। इन सबका हवन और हैं। कोटि-कोटि बालसूर्यके सदृश उनकी सुन्दर कान्ति विशेषरूपसे पूजन करना चाहिये। इस प्रकार है। उनके श्रीविग्रहसे सटकर बैठी हुई श्रीदेवी भी सब भगवद्भक्त पुरुष नित्य-पूजनकी विधिमें प्रतिदिन प्रकारके शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न दिखायी देती हैं। एकाग्रचित्त हो हवन करे। इस हवनका नाम इस प्रकार ध्यान करते हुए एकाग्रचित्त एवं शुद्ध हो 'वैकुण्ठहोम' है। अष्टाक्षरमन्त्रका एक हजार या एक सौ बार यथाशक्ति गृहमें पूजा करनेपर उस घरके दरवाजेपर जप करे। फिर भक्तिपूर्वक मानसिक पूजा करके विराम पञ्चयज्ञकी विधिसे बलि अर्पण करे, फिर आचमन कर करे। उस समय जो भगवद्भक्त पुरुष वहाँ पधारे हो, उन्हें ले। तत्पश्चात् कुशके आसनपर काला मृगचर्म बिछाकर अन्न-जल आदिसे सन्तुष्ट करे और जब वे जाने लगे तो उस शुद्ध आसनके ऊपर बैठे। मृगचर्म अपने-आप मरे उनके पीछे-पीछे थोड़ी दूर जाकर विदा करे । देवताओं हुए मृगका होना चाहिये। पद्मासनसे बैठकर पहले तथा पितरोंका विधिपूर्वक पूजन एवं तर्पण करे और भूतशुद्धि करे, फिर जितेन्द्रिय पुरुष मन्त्रपाठपूर्वक तीन अतिथि एवं भृत्यवोंका यथावत् सत्कार करके सबके बार प्राणायाम कर ले । तदनन्तर मन-ही-मन यह भावना अन्तमें वह और उसकी पत्नी भोजन करे। यक्ष, राक्षस करे कि 'मेरे हृदय-कमलका मुख ऊपरकी ओर है और और भूतोंका पूजन सदा त्याग दे। जो श्रेष्ठ विप्र उनका वह विज्ञानरूपी सूर्यके प्रकाशसे विकसित हो रहा है।' पूजन करता है, वह निश्चय ही चाण्डाल हो जाता है। इसके बाद श्रेष्ठ वैष्णव पुरुष उस कमलकी वेदत्रयीमयी ब्रह्मराक्षस, वेताल, यक्ष तथा भूतोंका पूजन मनुष्योंके कर्णिका क्रमशः अग्निबिम्ब, सूर्यबिम्ब और लिये महाघोर कुम्भीपाक नामक नरककी प्राप्ति चन्द्रबिम्बका चिन्तन करे। उन बिम्बोंके ऊपर नाना करानेवाला है। यक्ष और भूत आदिके पूजनसे कोटि प्रकारके रलोद्वारा निर्मित पीठकी भावना करे। इसके जन्मोंके किये हुए यज्ञ, दान और शुभ कर्म आदि पुण्य ऊपर बालरविके सदृश कान्तिमान् अष्टविध ऐश्वर्यरूप तत्काल नष्ट हो जाते है।* जो यक्षों, पिशाचों तथा अष्टदलकमलका चिन्तन करे। प्रत्येक दल अष्टाक्षर तमोगुणी देवताओंको निवेदित किया हुआ अन्न खाता मन्त्रके एक-एक अक्षरके रूपमें हो। फिर ऐसी भावना है, वह पीब और रक्त भोजन करनेवाला होता है। जो करे कि उस अष्टदल-कमलमें श्रीदेवीके साथ भगवान् स्त्री, यक्ष, पिशाच, सर्प और राक्षसोंकी पूजा करती है, * यक्षराक्षसभूतानामचनं वर्जयेत् सदा । यो महान् कुरुते विप्रः स चाण्डालो भवेद् ध्रुवम् ॥ ब्रह्मराक्षसवेतालयक्षभूतार्चनं नृणाम्। कुम्भीपाकमहापोरनरकप्राप्तिसाधनम्॥ कोटिजन्यकृतं पुष्य यज्ञदान क्रियादिकम् । सद्यः सर्व लय याति यक्षभूतादिपूजनात् । (२८०.९४, ९६-९७)
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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