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________________ ९४ · अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् • होने पाता था। उसकी प्रजामें कोई भी ऐसा नहीं था जो दीन, रोगी, अल्पायु, दुःखी, मूर्ख, कुरूप, दुर्भाग्यशाली और अपमानित हो । इन्द्रको आते देख दानवोंने जाकर राजा बाष्कलिसे कहा- 'प्रभो! बड़े आश्चर्यकी बात है कि आज इन्द्र एक बौने ब्राह्मणके साथ अकेले ही आपकी पुरीमें आ रहे हैं। इस समय हमारे लिये जो कर्तव्य हो, उसे शीघ्र बताइये।' उनकी बात सुनकर बाष्कलिने कहा'दानवो ! इस नगरमें देवराजको आदरके साथ ले आना चाहिये। वे आज हमारे पूजनीय अतिथि हैं।' पुलस्त्यजी कहते हैं- १- दानवराज बाष्कलि दानवोंसे ऐसा कहकर फिर स्वयं इन्द्रसे मिलनेके लिये अकेला ही राजमहलसे बाहर निकल पड़ा और अपने शोभा सम्पन्न नगरकी सातवीं ड्योढ़ीपर जा पहुँचा। इतनेमें ही उधरसे भगवान् वामन और इन्द्र भी आ पहुँचे। दानवराजने बड़े प्रेमसे उनकी ओर देखा और प्रणाम करके अपनेको कृतार्थ माना। वह हर्षमें भरकर सोचने लगा- 'मेरे समान धन्य दूसरा कोई नहीं है, क्योंकि आज मैं त्रिभुवनकी राजलक्ष्मीसे सम्पन्न होकर इन्द्रको याचकके रूपमें अपने घरपर आया देखता हूँ। ये मुझसे कुछ याचना करेंगे। घरपर आये हुए इन्द्रको मैं [ संक्षिप्त पद्मपुराण ******* अपनी स्त्री, पुत्र, महल तथा अपने प्राण भी दे डालूँगा; फिर त्रिलोकीके राज्यकी तो बात ही क्या है। यह सोचकर उसने सामने आ इन्द्रको अङ्कमें भरकर बड़े आदरके साथ गले लगाया और अपने राजभवनके भीतर ले जाकर अर्घ्य तथा आचमनीय आदिसे उन दोनोंका यत्नपूर्वक पूजन किया। इसके बाद बाष्कलि बोला- 'इन्द्र ! आज मैं आपको अपने घरपर स्वयं आया देखता हूँ; इससे मेरा जन्म सफल हो गया, मेरे सभी मनोरथ पूर्ण हो गये। प्रभो! मेरे पास आपका किस प्रयोजनसे आगमन हुआ ? मुझे सारी बात बताइये। आपने यहाँतक आनेका कष्ट उठाया, इसे मैं बड़े आश्चर्यकी बात समझता हूँ।' इन्द्रने कहा- बाष्कले ! मैं जानता दानव वंशके श्रेष्ठ पुरुषोंमें तुम सबसे प्रधान हो। तुम्हारे पास मेरा आना कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। तुम्हारे घरपर आये हुए याचक कभी विमुख नहीं लौटते। तुम याचकोंके लिये कल्पवृक्ष हो। तुम्हारे समान दाता कोई नहीं है। तुम प्रभामें सूर्यके समान हो। गम्भीरतामें सागरकी समानता करते हो। क्षमाशीलताके कारण तुम्हारी पृथ्वीके साथ तुलना की जाती है। ये ब्राह्मणदेवता वामन कश्यपजीके उत्तम कुलमें उत्पन्न हैं। इन्होंने मुझसे तीन पग भूमिके लिये याचना की है; किन्तु बाष्कले ! मेरा त्रिभुवनका राज्य तो तुमने पराक्रम करके छीन लिया है। अब मैं निराधार और निर्धन हूँ। इन्हें देनेके लिये मेरे पास कोई भूमि नहीं है। इसलिये तुमसे याचना करता हूँ। याचक मैं नहीं, ये हैं दानवेन्द्र! यदि तुम्हें अभीष्ट हो तो इन वामनजीको तीन पग भूमि दे दो। बाष्कलिने कहा- देवेन्द्र! आप भले पधारे, आपका कल्याण हो। जरा अपनी ओर तो देखिये; आप ही सबके परम आश्रय हैं। पितामह ब्रह्माजी त्रिभुवनकी रक्षाका भार आपके ऊपर डालकर सुखसे बैठे हैं और ध्यान धारणासे युक्त हो परमपदका चिन्तन करते हैं। भगवान् श्रीविष्णु भी अनेकों संग्रामोंसे थककर जगत्की चिन्ता छोड़ आपके ही भरोसे क्षीर सागरका आश्रय ले सुखकी नींद सो रहे हैं। उमानाथ भगवान् शङ्कर भी
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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