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________________ • अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .. [संक्षिप्त पापुराण प्रतिपादन किया है। तात ! तुम उन्हींकी शरणमें जाओ। उद्यत हुए, उसी समय मृत्युको साथ लिये काल उन्हें उनसे बढ़कर दूसरा कोई भी हितैषी नहीं है। जो बात लेनेके लिये आ पहुंचा। उसके गोलाकार नेत्र किनारेकी मनकी कल्पनामें भी नहीं आ सकती, उसे भी भगवान् ओरसे लाल-लाल दिखायी दे रहे थे। साँप और बिच्छू शङ्कर सिद्ध कर देते हैं। वे कालका भी संहार करनेवाले ही उसके रोम थे। बड़ी-बड़ी दाढोंके कारण उसका मुख है। बेटा ! क्या तुमने नहीं सुना है, पूर्वकालमें अत्यन्त विकराल जान पड़ता था। वह काजलके समान कालपाशसे बंधे हुए श्वेतकेतुकी महादेवजीने किस प्रकार काला था। समीप आकर कालने उनके गले में फंदा रक्षा की? उन्होंने ही समुद्रमन्थनसे प्रकट हुए डाल दिया। गलेमें बहुत बड़ा फंदा लग जानेपर प्रलयकालीन अग्रिके समान भयङ्कर हालाहल विषका मार्कण्डेयजीने कहा-'महामते काल! मैं जबतक पान करके तीनों लोकोंको बचाया था। जिसने तीनों जगदीश्वर शिवके मृत्युञ्जय नामक महास्तोत्रका पाठ पूरा लोकोंकी सम्पत्ति हड़प ली थी, उस महान् अभिमानी न कर लें, तबतक मेरी प्रतीक्षा करो। मैं शिवजीकी स्तुति जलंधरको अपने चरणोंकी अङ्गष्टरेखासे प्रकट हुए किये बिना कहीं नहीं जाता। भोजन और शयनतक नहीं चक्रद्वारा मौतके घाट उतार दिया था। ये वही भगवान् करता। यह मेरा निश्चित व्रत है। संसारमें जीवन, स्त्री, धूर्जीट है, जिन्होंने श्रीविष्णुको वाण बनाकर एक ही राज्य तथा सुख भी मुझे उतना प्रिय नहीं है, जितना कि बाणके प्रहारसे उत्पन्न हुई आगकी लपटोंसे दैत्योंके तीनों यह शिवजीका स्तोत्र है। यदि मैंने इस विषयमें कोई पुरोको फूंक झला था। अन्धकासुर तीनों लोकोंका ऐश्वर्य असत्य बात न कही हो तो इस सत्यके प्रभावसे भगवान् पाकर विवेकशून्य हो गया था, किन्तु उसे भी महेश्वर सदा मुझपर प्रसन्न रहें।' महादेवजीने अपने त्रिशूलकी नोकपर रखकर दस हजार यह सुनकर कालने मार्कण्डेयजीसे हँसते-हँसते वर्षोंतक सूर्यको किरणोंमें सुखाया। केवल दृष्टि कहा-'ब्रह्मन् ! मालूम होता है तुमने पूर्वकालसे डालनेमात्रसे तीनों लोकोंको जीत लेनेवाले प्रबल निश्चित को हुई बड़े-बूढ़ोंकी यह बात नहीं सुनी है जो कामदेवको उन्होंने ब्रह्मा आदि देवताओंके देखते-देखते मूढ़बुद्धि मानव आयुके प्रथम भागमें ही धर्मका अनुष्ठान जलाकर भस्म कर डाला-अनङ्गकी पदवीको पहुँचा नहीं करता, वह वृद्ध होनेपर साथियोंसे बिछुड़े हुए दिया। भगवान् शिव ब्रह्मा आदि देवताओंके एकमात्र राहीकी भाँति पश्चात्ताप करता है। आठ महीनोंमें ऐसा कर्ता, मेघरूपी वृषभपर सवारी करनेवाले, अपनी उपाय कर लेना चाहिये, जिससे वर्षाकालके चार महीने महिमासे कभी च्युत न होनेवाले, सम्पूर्ण विश्वके आश्रय सुखसे बीतें। दिनमें ही वह काम पूरा कर ले, जिससे और जगत्की रक्षाके लिये दिव्य मणि हैं। बेटा ! तुम रातमें सुखसे रहे। पहली अवस्थामें ही ऐसा कार्य कर उन्हींकी शरणमें जाओ।'...........: ले, जिससे बुढ़ापे में सुखसे रहे। जीवनभर ऐसा कार्य इस प्रकार माता-पिताकी आज्ञा पाकर मार्कण्डेयजी करता रहे, जिससे मरनेके बाद सुख हो। जो कार्य कल दक्षिण-समुद्रके तटपर चले गये और वहाँ विधिपूर्वक करना हो, उसे आज ही कर ले। जिसे अपराहमें करना अपने ही नामसे एक शिवलिङ्ग स्थापित किया। तीनों हो, उसे पूर्वाहमे ही कर डाले। काल इस बातकी समय स्रान करके वे भगवान् शिवको पूजा करते और प्रतीक्षा नहीं करता कि इस पुरुषका काम पूरा हुआ है पूजाके अन्तमें स्तोत्र पढ़कर नृत्य करते थे। उस स्तोत्रसे या नहीं। यह कार्य कर लिया, यह करना है और इस एक ही दिनमें भगवान् शङ्कर सन्तुष्ट हो गये। कार्यका कुछ अंश हो गया है तथा कुछ बाकी है-इस मार्कण्डेयजीने बड़ी भक्तिके साथ उनका पूजन किया। प्रकारको इच्छाएँ करते हुए पुरुषको काल सहसा आकर जिस दिन उनकी आयु समाप्त होनेवाली थी, उस दिन दबोच लेता है। जिसका काल नहीं आया है, वह सैकड़ों शिवजीकी पूजामें संलग्न हो वे ज्यों ही स्तुति करनेको बाणोंसे बिंध जानेपर भी नहीं मरता तथा जिसका काल
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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