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________________ ८९२ . अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पयपुराण अब मैं अपना सारा वृत्तान्त बतलाता हूँ, सुनिये। स्वर्णमुद्राओंका उपार्जन किया। मेरे एक ही पुत्र था, जो पूर्वकालकी बात है, नैषध नगरमें विश्वगुप्त नामसे प्रसिद्ध सम्पूर्ण गुणोंमें श्रेष्ठ था। मैंने अपने सारे धनको दो परम धर्मात्मा तथा स्वधर्मपालनमें तत्पर एक वैश्य रहते भागोंमें बाँटकर आधा तो पुत्रको दे दिया और आधा थे। मैं उन्हींका पुत्र था। मेरा नाम धर्मगुप्त था। अपने लिये रखा। अपने हिस्सेका धन लेकर पोखरा स्वाध्याय, यजन, दान, सूद लेना, पशुपालन, गोरक्षा, खुदवाया। नाना प्रकारके वृक्षोंसे युक्त बगीचा खेती और व्यापार—यही सब मेरा काम था। द्विज- लगवाया। अनेक मण्डपोंसे सुशोभित देवमन्दिर श्रेष्ठ ! मैं [अनुचित] काम और दम्भसे सदा दूर ही बनवाया। मरुभूमिके मार्गोंमें पौसले और कुएँ बनवाये रहा। सत्य बोलता और किसीकी निन्दा नहीं करता था। तथा ठहरनेके लिये धर्मशालाएँ तैयार करायीं। इन्द्रियोंको काबूमें रखकर अपनी स्त्रीसे ही अनुराग करता कन्यादान, गोदान और भूमिदान किये। तिल, चावल, था और परायी स्त्रियोंके सम्पर्कसे बचा रहता था । मुझमें गेहूँ और मूंग आदिका भी दान किया। उड़द, धान, तिल राग, भय और क्रोध नहीं थे। लोभ और मत्सरको भी और घी आदिका दान तो मैंने बहुत बार किया। मैंने छोड़ रखा था। दान देता, यज्ञ करता, देवताओंके तदनन्तर रसके चमत्कारोंका वर्णन करनेवाला कोई प्रति भक्ति रखता और गौओं तथा ब्राह्मणोंके हितमें कापालिक मेरे पास आया और कौतूहल पैदा करनेके संलग्र रहता था। सदा धर्म, अर्थ और कामका सेवन लिये कुछ करामात दिखाकर उसने मुझे अपने करता तथा व्यापारके काममें कभी किसीको धोखा नहीं मायाजालमें फंसाकर ठग लिया। उसकी करतूतें देखकर देता था। ब्राह्मणलोग जब यज्ञ करते, उस समय उन्हें उसके प्रति मेरा विश्वास बढ़ गया और रसवाद-चाँदी, बिना माँगे ही धन देता था। समयपर श्राद्ध तथा सम्पूर्ण सोना आदि बनानेके नामपर मेरा सारा धन बरबाद हो देवताओंका पूजन करता था। अनेक प्रकारके सुगन्धित गया। उस कापालिकने मुझे भ्रममें डालकर बहुत द्रव्य, बहुत-से पशु, दूध-दही, मट्ठा, गोबर, घास, दिनोंतक भटकाया। उसके लिये धन दे-देकर मैं दरिद्र हो लकड़ी, फल, मूल, नमक, जायफल, पीपल, अन्न, गया। माघका महीना आया और मैंने दस दिनोंतक सागके बीज, नाना प्रकारके वस्त्र, धातु, ईखके रससे सूर्योदयके समय महानदीमें लान किया; किन्तु बुढ़ापेके तैयार होनेवाली वस्तुएँ और अनेक प्रकारके रस बेचा कारण इससे अधिक समयतक मैं स्रानका नियम करता था। जो दूसरोंको देता था, वह तौलमें कम नहीं चलानेमें असमर्थ हो गया। इसी बीचमें मेरा पुत्र रहता था और जो औरोंसे लेता, वह अधिक नहीं होता देशान्तरमें चला गया। घोड़े मर गये। खेती नष्ट हो गयी था। जिन रसोंके बेचनेसे पाप होता है, उनको छोड़कर और बेटेने वेश्या रख ली। फिर भी भाई-बन्धु यह अन्य रसोंको बेचा करता था। बेचनेमें छल-कपटसे सोचकर कि यह बेचारा बूढ़ा, धर्मात्मा और पुण्यवान् है, काम नहीं लेता था। जो मनुष्य साधु पुरुषोंको व्यापारमें धर्मक ही उद्देश्यसे मुझे कुछ सूखा अन्न और भात दे दिया ठगता है, वह घोर नरकमें पड़ता है तथा उसका धन भी करते थे। अब मैं अपना धर्म बेचकर कुटुम्बका पालननष्ट हो जाता है। मैं सब देवताओं, ब्राह्मणों तथा पोषण करने लगा, केवल माघस्रानके फलको नहीं बेच गौओंकी प्रतिदिन सेवा करता और पाखण्डी लोगोंसे दूर सका। एक दिन जिद्धाकी लोलुपताके कारण दूसरेके रहता था। ब्रह्मन् ! किसी भी प्राणीसे मन, वाणी और घरपर खूब गलेतक हँसकर मिठाई खा ली। इससे क्रियाद्वारा ईर्ष्या किये बिना ही जो जीविका चलायी जाती अजीर्ण हो गया। अजीर्णसे अतिसारकी बीमारी हुई और है, वही परम धर्म है। मैं ऐसी ही जीविकासे जीवन- उससे मेरी मृत्यु हो गयी। केवल माघनानके प्रभावसे मैं निर्वाह करता था। एक मन्वन्तरतक स्वर्गमें देवराज इन्द्रके पास रहा और इस प्रकार धर्मके मार्गसे चलकर मैंने एक करोड़ पुण्यकी समाप्ति हो जानेपर हाथीकी योनिमें उत्पन्न हुआ।
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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