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________________ ८८८ ___ • अर्जयस्त हवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [ संक्षिप्त पयपुराण अन्नका भोजन करते थे। इन्द्रियोंको काबूमें रखते, काला सबका प्रवाह जहाँ पश्चिम या उत्तरकी ओर है, उस मृगचर्म धारण करते और सदा स्वाध्यायमें संलग्न रहते स्थानका प्रयागसे भी अधिक महत्त्व बतलाया गया है। थे। पैरसे लेकर शिखातक लंबा पलाशका डंडा, जिसमें मैंने अपने पूर्वपुण्योंके प्रभावसे आज कावेरीका कोई छेद न हो, लिये रहते थे। उनके कटिभागमें मूंजको पश्चिमगामी प्रवाह प्राप्त किया है। वास्तवमें मैं कृतार्थ हूँ, मेखला शोभा पाती थी। हाथमें सदा कमण्डलु धारण कृतार्थ हूँ, कृतार्थ हूँ।' इस प्रकार सोचते हुए वे प्रसन्न करते, स्वच्छ कौपीन पहनते, शुद्ध भावसे रहते और होकर कावेरीके जलमें तीनो काल स्नान करते थे। स्वच्छ यज्ञोपवीत धारण करते थे। उनका मस्तक उन्होंने कावेरीके पश्चिमगामी प्रवाहमें तीन सालतक समिधाओंकी भस्मसे सुशोभित था। वे सबके नयनोंको माघ-स्तान किया। उसके पुण्यसे उनका अन्तःकरण प्रिय जान पड़ते थे। प्रतिदिन माता, पिता, गुरु, आचार्य, शुद्ध हो गया। वे ममता और कामनासे रहित हो गये। अन्यान्य बड़े-बूढ़ों, संन्यासियों तथा ब्रह्मवादियोंको तदनन्तर माता, पिता और गुरुकी आज्ञा लेकर वे प्रणाम करते थे। बुद्धिमान् वत्स ब्रह्मयज्ञमें तत्पर रहते सर्वपापनाशक कल्याणतीर्थमें आ गये। उस सरोवरमें और सदा शुभ कर्माका अनुष्ठान किया करते थे। वे भी एक मासतक माघस्नान करके ब्रह्मचारी वत्स मुनि हाथमें पवित्री धारण करके देवताओं, ऋषियों और तपस्या करने लगे। राजन् ! इस प्रकार उन्हें उत्तम तपस्या पितरोंका तर्पण करते थे। फूल, चन्दन और गन्ध करते देख भगवान् विष्णु प्रसन्न होकर उनके आगे आदिको कभी हाथसे छूते भी नहीं थे। मौन होकर प्रत्यक्ष प्रकट हुए और बोले-'महाप्राज्ञ मृगशृङ्ग ! मैं भोजन करते । मधु, पिण्याक और खारा नमक नहीं खाते तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ।' यो कहकर भगवान् पुरुषोत्तमने थे। खड़ाऊँ नहीं पहनते थे तथा सवारीपर नहीं चढ़ते। उनके ब्रह्मरन्ध (मस्तक) का स्पर्श किया। शीशेमें मुँह नहीं देखते । दन्तधावन, ताम्बूल और पगड़ी तब वत्स मुनि समाधिसे विरत हो जाग उठे और आदिसे परहेज रखते थे। नौला, लाल तथा पीला वस्त्र, उन्होंने अपने सामने ही भगवान् विष्णुको उपस्थित खाट, आभूषण तथा और भी जो-जो वस्तुएँ ब्रह्मचर्य- देखा। वे सहस्र सूर्योके समान तेजस्वी कौस्तुभमणिरूप आश्रमके प्रतिकूल बतायी गयी है, उन सबका वे आभूषणसे अत्यन्त भासमान दिखायी देते थे। तब स्पर्शतक नहीं करते थे; सदा शान्तभावसे सदाचारमें ही मुनिने बड़े वेगसे उठकर भगवान्को प्रणाम किया और तत्पर रहते थे। बड़े भावसे सुन्दर स्तुति की। ऐसे आचारवान् और विशेषतः ब्रह्मचर्यका पालन भगवान् हृषीकेशकी स्तुति और नमस्कार करके करनेवाले वत्स मुनि सूर्यके मकर-राशिपर रहते वत्स मुनि अपने मस्तकपर हाथ जोड़े चुपचाप भगवान्के माघ मासमें भक्तिपूर्वक प्रातःस्नान करते थे। वे उस सामने खड़े हो गये। उस समय उनके नेत्रोंसे आनन्दके समय विशेष रूपसे शरीरकी शुद्धि करते थे। आकाशमें आँसू बह रहे थे और सारे शरीरमें रोमाञ्च हो आया था। जब इने-गिने तारे रह जाते थे, उस समय-ब्रह्मवेलामें तब श्रीभगवान्ने कहा-मृगङ्ग ! तुम्हारी इस तो वे नित्यनान करते थे और फिर जब आधे सूर्य स्तुतिसे मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है। मात्र मासमें इस निकल आते, उस समय भी माघका नान करते थे। वे सरोवरके जलमें जो तुमने स्रान और तप किये हैं, इससे मन-ही-मन अपने भाग्यकी सराहना करने लगे- मैं बहुत सन्तुष्ट हूँ। मुने ! तुम निरन्तर कष्ट सहते-सहते 'अहो! इस पश्चिमवाहिनी कावेरी नदीमें स्नानका थक गये हो। दक्षिणाओसहित यज्ञ, दान, अन्यान्य अवसर मिलना प्रायः मनुष्यों के लिये कठिन है, तो भी नियम तथा यमोंके पालनसे भी मुझे उतना संतोष नहीं मैंने मकरार्कमें यहाँ स्नान किया। वास्तवमें मैं बड़ा होता, जितना माघके स्नानसे होता है। पहले तुम मुझसे भाग्यवान् हूँ। समुद्रमें मिली हुई जितनी नदियाँ हैं, उन वर माँगो। फिर मैं तुम्हें मनोवाञ्छित वस्तु प्रदान
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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