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________________ ८४८ • अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [ संक्षिप्त पयपुराण मैंने कहा-साध्वी ! मैं अभी ज्ञानदृष्टिसे अपने हृदयके और इससे तुम्हारा सब शोक दूर हो जायगा। जिस दिन भीतर तुम्हारे दुःखका सारा कारण देखता हूँ। तुम खेद भगवान् श्रीकृष्ण इस भूलोकको छोड़कर अपने न करो। भगवान् तुम्हें शान्ति देंगे। ..... परमधामको पधारे, उसी दिनसे यहाँ कलियुगका ___ तब मुनीश्वर नारदजीने ध्यान लगाया और एक ही आगमन हुआ है, जो समस्त साधनोंमें बाधा उपस्थित क्षणमें उसका कारण जानकर कहा-'बाले ! तुम ध्यान करनेवाला है। दिग्विजयके समय जब राजा परीक्षित्की देकर सुनो। यह कलिकाल बड़ा भयङ्कर युग है। इसीने दृष्टि इस कलियुगके ऊपर पड़ी तो यह दीनभावसे उनकी सदाचारका लोप कर दिया । योगमार्ग और तप आदि भी शरणमें गया। राजा भौरके समान सारग्राही थे, इसलिये लुम हो गये हैं। इस समय मनुष्य शठता और दुष्कर्ममें उन्होंने सोचा कि मुझे इसका वध नहीं करना चाहिये। प्रवृत्त होकर असुर-स्वभावके हो गये हैं। आज जगत्में क्योंकि इस कलियुगमें एक बड़ा अद्भुत गुण है। अन्य सज्जन पुरुष दुःखी हैं और दुष्टलोग मौज करते हैं। ऐसे युगोंमें तपस्या, योग और समाधिसे भी जिस फलकी समयमें जो धैर्य धारण किये रहे, वही बुद्धिमान, धौर प्राप्ति नहीं होती, वहीं फल कलियुगमें भगवान् केशवके अथवा पण्डित है। अब यह पृथ्वी न तो स्पर्श करने- कीर्तनमात्रसे और अच्छे रूपमें उपलब्ध होता है।* योग्य रह गयी है और न देखने योग्य । यह क्रमशः असार होनेपर भी इस एक ही रूपमे यह सारभूत फल प्रतिवर्ष शेषनागके लिये भारभूत होती जा रही है। इसमें प्रदान करनेवाला है, यही देखकर राजा परीक्षितने कहीं भी माल नहीं दिखायी देता। तुम्हे और तुम्हारे कलियुगमें उत्पन्न होनेवाले जीवोंके सुखके लिये इसे पुत्रोंको तो अब कोई देखता भी नहीं है। इस प्रकार रहने दिया। ........ विषयान्ध मनुष्योंके उपेक्षा करनेसे ही तुम जर्जर हो गयी इस समय लोगोंकी खोटे कर्मोमें प्रवृत्ति होनेसे थी, किन्तु वृन्दावनका संयोग पाकर पुनः नवीन सभी वस्तुओंका सार निकल गया है तथा इस पृथ्वीपर तरुणी-सी हो गयी हो; अतः यह वृन्दावन धन्य है, जहाँ जितने भी पदार्थ हैं, वे बीजहीन भूसीके समान निस्सार सब ओर भक्ति नृत्य कर रही है। परन्तु इन ज्ञान और हो गये हैं। बाह्मणलोग धनके लोभसे घर-घरमें जाकर वैराग्यका यहाँ भी कोई ग्राहक नहीं है; इसलिये प्रत्येक मनुष्यको [अधिकारी-अनधिकारीका विचार अभीतक इनका बुढ़ापा दूर नहीं हुआ । इन्हें अपने भीतर किये बिना ही] भागवतकी कथा सुनाने लगे हैं, इससे कुछ सुख-सा प्रतीत हो रहा है, इससे इनकी गाढ़ कथाका सार चला गया-लोगोंको दृष्टिमें उसका कुछ सुषुप्तावस्थाका अनुमान होता है। महत्त्व नहीं रह गया है। तीर्थोंमें बड़े भयङ्कर कर्म ___ भक्तिने कहा-महर्षे ! महाराज परीक्षित्ने करनेवाले नास्तिक और दम्भी मनुष्य भी रहने लगे हैं; इस अपवित्र कलियुगको पृथ्वीपर रहने ही क्यों दिया? इसलिये तीर्थोका भी सार चला गया। जिनका चित्त तथा कलियुगके आते ही सब वस्तुओका सार कहाँ काम, क्रोध, भारी लोभ और तृष्णासे सदा व्याकुल चला गया? भगवान् तो बड़े दयालु है, उनसे भी रहता है, वे भी तपस्वी बनकर बैठते हैं। इसलिये यह अधर्म कैसे देखा जाता है? मुने! मेरे इस तपस्याका सार भी निकल गया। मनको काबूमें न करने, संशयका निवारण कीजिये। आपकी बातोंसे मुझे बड़ा लोभ, दम्भ और पाखण्डका आश्रय लेने तथा शास्त्रका सुख मिला है। अभ्यास न करनेके कारण ध्यानयोगका फल भी चला नारदजी बोले-बाले ! यदि तुमने पूछा है तो गया। औरोंकी तो बात ही क्या, पण्डितलोग भी अपनी प्रेमपूर्वक सुनो । कल्याणी ! मैं तुम्हें सब बातें बताऊँगा स्त्रियोंके साथ भैसोंकी तरह रमण करते हैं। वे सन्तान * यत्फलं नास्ति तपसा न योगेन समाधिना । तत्फलं लभते सम्यकलौ केशवकीर्तनात् ।। (१८९।७५)
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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