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________________ ८३८ • अर्जयस्व इवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् • [ संक्षिप्त पयपुराण कहकर विलाप करने लगी। चारों दिशाओमें घूम- इस दुर्गम वनमें रहता हूँ तथा अपने पूर्व पापोंको याद घूमकर वियोगजनित विलाप करती हुई उस स्त्रीकी करके कभी धर्मिष्ठ महात्मा, यति, साधु पुरुष तथा सती आवाज सुनकर कोई सोया हुआ व्याघ्र जाग उठा और स्त्रियोंको मैं नहीं खाता। पापी, दुराचारी तथा कुलटा उछलकर उस स्थानपर पहुंचा, जहाँ वह रो रही थी। स्त्रियोंको ही मैं अपना भक्ष्य बनाता है। अतः कुलटा उधर वह भी उसे आते देख किसी प्रेमीको आशङ्कासे होनेके कारण तू अवश्य ही मेरा ग्रास बनेगी। उसके सामने खड़ी होनेके लिये ओटसे बाहर निकल यों कहकर वह अपने कठोर नखोसे उसके शरीरके आयी। उस समय व्याघ्रने आकर उसे नखरूपी वाणोंके टुकड़े-टुकड़े करके रखा गया। इसके बाद यमराजके दूत प्रहारसे पृथ्वीपर गिरा दिया। इस अवस्थामे भी वह उस पापिनीको संयमनीपुरीमें ले गये। वहाँ यमराजकी कठोर वाणीमें चिल्लाती हुई पूछ बैठी-'अरे बाघ ! तू आज्ञासे उन्होंने अनेकों बार उसे विष्ठा, मूत्र और रक्तसे किसलिये मुझे मारनेको यहाँ आया है? पहले इन सारी भरे हुए भयानक कुण्डोंमें गिराया। करोड़ों कल्पोंतक बातोंको बता दे, फिर मुझे मारना।' उसमें रखनेके बाद उसे वहाँसे ले आकर सौ मन्वन्तरोंउसकी यह बात सुनकर प्रचण्ड पराक्रमी व्यान तक गैरव नरकमें रखा। फिर चारों ओर मुँह करके क्षणभरके लिये उसे अपना ग्रास बनानेसे रुक गया और दीनभावसे रोती हुई उस पापिनीको वहाँसे खींचकर हैंसता हुआ-सा बोला-'दक्षिण देशमे मलापहा नामक दहनानन नामक नरकमें गिराया। उस समय उसके केश एक नदी है। उसके तटपर मुनिपर्णा नगरी बसी हुई है। खुले हुए थे और शरीर भयानक दिखायी देता था। इस वहाँ पञ्चलिङ्ग नामसे प्रसिद्ध साक्षात् भगवान् शङ्कर प्रकार घोर नरक-यातना भोग चुकनेपर वह महापापिनी निवास करते हैं। उसी नगरीमें मैं ब्राह्मणकुमार होकर इस लोकमें आकर चाण्डाल योनिमें उत्पन्न हुई। रहता था। नदीके किनारे अकेला बैठा रहता और जो चाण्डालके घरमें भी प्रतिदिन बढ़ती हुई वह पूर्वजन्मके यज्ञके अधिकारी नहीं हैं, उन लोगोंसे भी यज्ञ कराकर अभ्याससे पूर्ववत् पापोंमें प्रवृत्त रही। फिर उसे कोढ़ और उनका अन्न खाया करता था। इतना ही नहीं, धनके राजयक्ष्माका रोग हो गया। नेत्रों में पीड़ा होने लगी। फिर लोभसे मैं सदा अपने वेदपाठके फलको भी बेचा करता कुछ कालके पश्चात् वह पुनः अपने निवासस्थानको गयी, था। मेरा लोभ यहाँतक बढ़ गया था कि अन्य जहाँ भगवान् शिवके अन्तःपुरको स्वामिनी जम्भकादेवी भिक्षुओंको गालियां देकर हटा देता और स्वयं दूसरोंका विराजमान हैं। वहाँ उसने वासुदेव नामक एक पवित्र नहीं देने योग्य घन भी बिना दिये ही हमेशा ले लिया ब्राह्मणका दर्शन किया, जो निरन्तर गीताके तेरहवे करता था। ऋण लेनेके बहाने मैं सब लोगोको छला अध्यायका पाठ करता रहता था। उसके मुखसे गीताका करता था। तदनन्तर कुछ काल व्यतीत होनेपर मैं बूढ़ा पाठ सुनते ही वह चाण्डाल-शरीरसे मुक्त हो गयी और हुआ। मेरे बाल सफेद हो गये। आँखोसे सूझता न था दिव्य देह धारण करके स्वर्गलोकमें चली गयी। और मैंहके सारे दाँत गिर गये। इतनेपर भी मेरी दान श्रीमहादेवजी कहते हैं-पार्वती ! अब मैं लेनेकी आदत नहीं छूटी । पर्व आनेपर प्रतिग्रहके लोभसे भव-बन्धनसे छुटकारा पानेके साधनभूत चौदहवे मैं हाथमें कुश लिये तीर्थके समीप चला जाया करता था। अध्यायका माहात्म्य बतलाता है, तुम ध्यान देकर सुनो। तत्पश्चात् जब मेरे सारे अङ्ग शिथिल हो गये, तब एक बार सिंहल द्वीपमे विक्रम बेताल नामक एक राजा थे, जो मैं कुछ धूर्त ब्राह्मणोंके घरपर माँगने-खानेके लिये गया। सिंहके समान पराक्रमी और कलाओंके भंडार थे। एक उसी समय मेरे पैरमें कुत्तेने काट लिया। तब मैं मूर्छित दिन वे शिकार खेलनेके लिये उत्सुक होकर राजकुमारोंहोकर क्षणभरमें पृथ्वीपर गिर पड़ा। मेरे प्राण निकल सहित दो कुतियोंको साथ लिये कनमें गये। वहाँ गये। उसके बाद मैं इसी व्याघ्रयोनिमें उत्पन्न हुआ। तबसे पहुंचनेपर उन्होंने तीव्र गतिसे भागते हुए खरगोशके पीछे
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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