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________________ ८३६ . अर्जयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पापुराण करती है, उस जगन्माता महालक्ष्मीकी जय हो ! जिस अश्वमेध नामक महान् यज्ञका अनुष्ठान कर रहे थे। वे शक्तिके सहारे उसीके आदेशके अनुसार परमेष्ठी ब्रह्मा सृष्टि करते हैं, भगवान् अच्युत जगत्का पालन करते है तथा भगवान् रुद्र अखिल विश्वका संहार करते हैं, उस सृष्टि, पालन और संहारकी शक्तिसे सम्पन्न भगवती पराशक्तिका मैं भजन करता हूँ। कमले ! योगीजन तुम्हारे चरण-कमलोका चिन्तन करते हैं। कमलालये ! तुम अपनी स्वाभाविक सत्तासे ही हमारे समस्त इन्द्रियगोचर विषयोंको जानती हो । तुम्ही कल्पनाओंके समूहको तथा उसका सङ्कल्प करनेवाले मनको उत्पन्न करती हो। इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति-ये सब तुम्हारे ही रूप है। तुम परासंवित् (परम ज्ञान)-रूपिणी हो। तुम्हारा स्वरूप निष्कल, निर्मल, नित्य, निराकार, निरञ्जन, अन्तररहित आतङ्कशून्य, आलम्बहीन तथा निरामय है। देवि ! तुम्हारी महिमाका वर्णन करने में कौन समर्थ हो सकता है। जो षट्चक्रोंका भेदन करके अन्तःकरणके बारह स्थानोंमें विहार करती है, अनाहत ध्वनि, विन्दु, नाद दैवयोगसे रोगग्रस्त होकर स्वर्गगामी हो गये। इसी बीचमें और कला-ये जिसके स्वरूप हैं, उस माता यूपमें बंधे हुए मेरे यज्ञसम्बन्धी घोड़ेको, जो समूची महालक्ष्मीको मैं प्रणाम करता हूँ। माता ! तुम अपने- पृथ्वीकी परिक्रमा करके लौटा था, किसीने रात्रिमें बन्धन [मुखरूपी] पूर्ण चन्द्रमासे प्रकट होनेवाली अमृत- काटकर कहीं अन्यत्र पहुँचा दिया। उसकी खोजमें मैंने राशिको बहाया करती हो। तुम्ही परा, पश्यन्ती, मध्यमा कुछ लोगोंको भेजा था; किन्तु वे कहीं भी उसका पता और वैखरी नामक वाणी हो। मैं तुम्हें नमस्कार करता न पाकर जब खाली हाथ लौट आये है, तब मैं सब हूँ। देवि ! तुम जगत्को रक्षाके लिये अनेक रूप धारण ऋत्विजोंसे आज्ञा लेकर तुम्हारी शरणमें आया हूँ। देवि ! किया करती हो। अम्बिके ! तुम्ही ब्राह्मी, वैष्णवी तथा यदि तुम मुझपर प्रसत्र हो तो मेरे यज्ञका घोड़ा मुझे मिल माहेश्वरी शक्ति हो। वाराही, महालक्ष्मी, नारसिंही, ऐन्द्री, जाय, जिससे यज्ञ पूर्ण हो सके। तभी मैं अपने पिता कौमारी, चण्डिका, जगत्को पवित्र करनेवाली लक्ष्मी, महाराजका ऋण उतार सकूँगा। शरणागतोंपर दया जगन्माता सावित्री, चन्द्रकला तथा रोहिणी भी तुम्ही हो। करनेवाली जगज्जननी लक्ष्मी ! जिससे मेरा यज्ञ पूर्ण हो, परमेश्वरि ! तुम भक्तोंका मनोरथ पूर्ण करनेके लिये वह उपाय करो। कल्पलताके समान हो । मुझपर प्रसन्न हो जाओ। भगवती लक्ष्मीने कहा-राजकुमार ! मेरे उसके इस प्रकार स्तुति करनेपर भगवती मन्दिरके दरवाजेपर एक ब्राह्मण रहते हैं, जो लोगोंमें महालक्ष्मी अपना साक्षात् स्वरूप धारण करके सिद्धसमाधिके नामसे विख्यात है। वे मेरी आज्ञासे बोलीं-'राजकुमार ! मैं तुमसे प्रसन्न हूँ। तुम कोई तुम्हारा सब काम पूरा कर देंगे। उत्तम वर मांगो।' - महालक्ष्मीके इस प्रकार कहनेपर राजकुमार उस राजपुत्र बोला-माँ ! मेरे पिता राजा बृहद्रथ स्थानपर आये, जहाँ सिद्धसमाधि रहते थे। उनके
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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