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________________ ८३४ • अर्थयस्व हबीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पद्मपुराण RRRRE थे। गिद्ध उस राहीको खाकर आकाशमें उड़ गया । तब ग्यारहवें अध्यायका जप करता है, उस मनुष्यके द्वारा तपस्वीने कुपित होकर उस किसानसे कहा-'ओ दुष्ट अभिमन्त्रित जल जब तुम्हारे मस्तकपर पड़ेगा, उस हलवाहे ! तुझे धिक्कार है। तू बड़ा ही कठोर और निर्दयी समय तुम्हें शापसे छुटकारा मिल जायगा। है। दूसरेकी रक्षासे मुँह मोड़कर केवल पेट पालनेके यह कहकर तपस्वी ब्राह्मण चले गये और वह धंधेमें लगा है। तेरा जीवन नष्टप्राय है। अरे ! जो चोर, हलवाहा राक्षस हो गया; अतः द्विजश्रेष्ठ ! तुम चलो और दाढ़वाले जीव, सर्प, शत्रु, अग्नि, विष, जल, गोध, ग्यारहवें अध्यायसे तीर्थके जलको अभिमन्त्रित करो। फिर राक्षस, भूत तथा बेताल आदिके द्वारा घायल हुए अपने ही हाथसे उस राक्षसके मस्तकपर उसे छिड़क दो। मनुष्योंकी शक्ति होते हुए भी उपेक्षा करता है, वह उनके ग्रामपालकी यह सारी प्रार्थना सुनकर ब्राह्मणका हृदय वधका फल पाता है। जो शक्तिशाली होकर भी चोर करुणासे भर आया। वे बहुत अच्छा' कहकर उसके साथ आदिके चंगुल में फंसे हुए ब्राह्मणको छुड़ानेकी चेष्टा नहीं राक्षसके निकट गये। वे ब्राह्मण योगी थे। उन्होंने करता, वह घोर नरकमें पड़ता और पुनः भेड़ियेकी योनिमें विश्वरूपदर्शन नामक ग्यारहवें अध्यायसे जल अभिमन्त्रित जन्म लेता है। जो वनमें मारे जाते हुए तथा गृध्र और करके उस राक्षसके मस्तकपर डाला। गीताके अध्यायके व्याघ्रकी दृष्टि में पड़े हुए जीवकी रक्षाके लिये 'छोड़ो, प्रभावसे वह शापसे मुक्त हो गया। उसने राक्षस-देहका छोड़ो' की पुकार करता है, वह परम गतिको प्राप्त होता परित्याग करके चतुर्भुज रूप धारण कर लिया तथा उसने है। जो मनुष्य गौओंको रक्षाके लिये व्याघ, भील तथा दुष्ट राजाओंके हाथसे मारे जाते हैं, वे भगवान् विष्णुके उस परमपदको पाते हैं जो योगियोंके लिये भी दुर्लभ है। सहस्र अश्वमेध और सौ वाजपेय यज्ञ मिलकर शरणागतरक्षाकी सोलहवीं कलाके बराबर भी नहीं हो सकते। दीन तथा भयभीत जीवको उपेक्षा करनेसे पुण्यवान् पुरुष भी समय आनेपर कुम्भीपाक नामक नरकमें पकाया जाता है।* तूने दुष्ट गिद्धके द्वारा खाये जाते हुए राहीको देखकर उसे बचानेमें समर्थ होते हुए भी जो उसकी रक्षा नहीं की, इससे तू निर्दयी जान पड़ता है; अतः तु राक्षस हो जा?' हलवाहा बोला-महात्मन् ! मैं यहाँ उपस्थित अवश्य था, किन्तु मेरे नेत्र बहुत देरसे खेतकी रक्षामें लगे थे, अतः पास होनेपर भी गिद्धके द्वारा मारे जाते हुए इस मनुष्यको मैं नहीं जान सका। अतः मुझ दीनपर आपको अनुग्रह करना चाहिये। तपस्वी ब्राह्मणने कह-जो प्रतिदिन गीताके *अमेधसहस्राणि वाजपेयशतानि च॥ शरणागतसंत्राणकला नाहन्ति षोडशीम्। दीनस्योपेक्षणं कृत्वा भीतस्य च शरीरिणः ।। पुण्यवानपि कालेन कुम्भीपाके स पच्यते। (१८१८२-८४)
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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