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________________ उत्तरखण्ड] • श्रीमद्भगवद्रीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य • ८२१ COMRANImrnt. umr..tum .. ........ . . ............ ......... कारण बतलाती हुई बोली-"मुने ! गोदावरी नदीके अप्सराओसहित मधुर स्वरमे गाना आरम्भ किया। इतना तटपर छित्रपाप नामका एक उत्तम तीर्थ है, जो मनुष्योंको ही नहीं, उन योगी महात्माको वशमें करनेके लिये पुण्य प्रदान करनेवाला है। वह पावनताकी चरम हमलोग स्वर, ताल और लयके साथ नृत्य भी करने सीमापर पहुंचा हुआ है। उस तीर्थमें सत्यतपा नामक लगीं। बीच-बीचमें जरा-जरा-सा अंचल खिसकनेपर एक तपस्वी बड़ी कठोर तपस्या कर रहे थे। वे ग्रीष्म उन्हें हमारी छाती भी दीख जाती थी। हम दोनोंकी उन्मत्त ऋतुमें प्रज्वलित अग्नियोंके बीचमें बैठते थे, वर्षाकालमें गति कामभावका उद्दीपन करनेवाली थी; किन्तु उसने जलकी धाराओंसे उनके मस्तकके बाल सदा भीगे ही उन निर्विकार चित्तवाले महात्माके मनमें क्रोधका सञ्चार रहते थे तथा जाड़े के समय जलमें निवास करनेके कारण कर दिया। तब उन्होंने हाथसे जल छोड़कर हमें उनके शरीरमें हमेशा रोंगटे खड़े रहते थे। वे बाहर- क्रोधपूर्वक शाप दिया-'अरी ! तुम दोनों गङ्गाजीके भीतरसे सदा शुद्ध रहते, समयपर तपस्या करते तथा मन तटपर बेरके वृक्ष हो जाओ। यह सुनकर हमलोगोंने और इन्द्रियोंको संयममें रखते हुए परम शान्ति प्राप्त बड़ी विनयके साथ कहा-'महात्मन्! हम दोनों करके आत्मामें ही रमण करते थे। वे अपनी विद्वत्ताके पराधीन थीं; अतः हमारे द्वारा जो दुष्कर्म बन गया है, द्वारा जैसा व्याख्यान करते थे, उसे सुननेके लिये साक्षात् उसे आप क्षमा करें।' यों कहकर हमने मुनिको प्रसन्न ब्रह्माजी भी प्रतिदिन उनके पास उपस्थित होते और प्रश्न कर लिया। तब उन पवित्र चित्तवाले मुनिने हमारे करते थे। ब्रह्माजीके साथ उनका संकोच नहीं रह गया शापोद्धारको अवधि निश्चित करते हुए कहा-'भरत था; अतः उनके आनेपर भी वे सदा तपस्यामें मग्न रहते मुनिके आनेतक हो तुमपर यह शाप लागू होगा। उसके थे। परमात्माके ध्यानमें निरन्तर संलग्न रहनेके कारण बाद तुमलोगोंका मर्त्यलोकमे जन्म होगा और उनकी तपस्या सदा बढ़ती रहती थी। सत्यतपाको पूर्वजन्मकी स्मृति बनी रहेगी।' जीवन्मुक्तके समान मानकर इन्द्रको अपने समृद्धिशाली, "मुने ! जिस समय हम दोनों बेर-वृक्षके रूपमें पदके सम्बन्धमें कुछ भय हुआ। तब उन्होंने उनकी खड़ी थीं, उस समय आपने हमारे समीप आकर गीताके तपस्यामें सैकड़ों विघ्न डालने आरम्भ किये। चौथे अध्यायका जप करते हुए हमारा उद्धार किया था। अप्सराओंके समुदायसे हम दोनोंको बुलाकर इन्द्रने इस अतः हम आपको प्रणाम करती हैं। आपने केवल प्रकार आदेश दिया-'तुम दोनों उस तपस्वीकी शापसे ही नहीं, इस भयानक संसारसे भी गीताके चतुर्थ तपस्यामें विघ्न डालो, जो मुझे इन्द्रपदसे हटाकर स्वयं अध्यायके पाठद्वारा हमें मुक्त कर दिया।" स्वर्गका राज्य भोगना चाहता है।'. श्रीभगवान् कहते हैं-उन दोनोंके इस प्रकार - "इन्द्रका यह आदेश पाकर हम दोनों उनके कहनेपर मुनि बहुत ही प्रसन्न हुए और उनसे पूजित हो सामनेसे चलकर गोदावरीके तीरपर, जहाँ वे मुनि तपस्या विदा लेकर जैसे आये थे, वैसे ही चले गये तथा वे कन्याएँ करते थे, आयीं । वहाँ मन्द एवं गम्भीर स्वरसे बजते हुए भी बड़े आदरके साथ प्रतिदिन गीताके चतुर्थ अध्यायका मृदङ्ग तथा मधुर वेणुनादके साथ हम दोनोंने अन्य पाठ करने लगी, जिससे उनका उद्धार हो गया।
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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