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________________ ७५६ १ • अर्चयस्व पीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .. [संक्षिप्त पद्मपुराण . कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि राजा पृथुने कहा-मुने ! आपने कार्तिक और अच्छी तरह साफ नहीं रखता, उसके उच्चारण किये हुए मायके स्नानका महान् फल बतलाया; अब उनमें किये मन्त्र फलदायक नहीं होते; इसलिये प्रयत्नपूर्वक दाँत जानेवाले खानकी विधि और नियमोंका भी वर्णन और जीभकी शुद्धि करनी चाहिये । गृहस्थ पुरुष किसी कीजिये, साथ ही उनकी उद्यापन-विधिको भी दूधवाले वृक्षकी बारह अंगुलकी लकड़ी लेकर दाँतुन ठीक-ठीक बताइये। __करे; किन्तु यदि घरमें पिताको क्षयाह तिथि या व्रत हो नारदजी बोले-राजन् ! तुम भगवान् विष्णुके तो दाँतुन न करे । दाँतुन करनेके पहले वनस्पति-देवतासे अंशसे उत्पन्न हुए हो, तुम्हारे लिये कोई बात अज्ञात नहीं इस प्रकार प्रार्थना करेहै। तथापि तुम पूछते हो, इसलिये मैं कार्तिकके परम आयुर्बलं यशो वर्चः प्रजा: पशुवसूनि च।। उत्तम माहात्म्यका वर्णन करता हूँ सुनो। आश्विन मासके ब्रह्मप्रज्ञा च मेयां च त्वं नो देहि वनस्पते ।। शुक्लपक्षमें जो एकादशी आती है, उसी दिन आलस्य (९४ । ११) छोड़कर कार्तिकके उत्तम व्रतोंका नियम ग्रहण करे । व्रत हे वनस्पते ! आप मुझे आयु, बल, यश, करनेवाला पुरुष पहरभर रात बाकी रहे, तभी उठे और तेज, संतति, पशु, धन, ब्रह्मज्ञान और स्मरणशक्ति जलसहित लोटा लेकर गाँवसे बाहर नैर्ऋत्यकोणकी ओर प्रदान करें।' जाय । दिन और सन्ध्याके समय उत्तर दिशाकी ओर मुँह इस मन्त्रका उच्चारण करके दाँतुनसे दाँत साफ करके तथा रात हो तो दक्षिणकी ओर मुँह करके मल- करना चाहिये। प्रतिपदा, अमावास्या, नवमी, षष्ठी, मूत्रका त्याग करे। पहले जनेऊको दाहिने कानपर चढ़ा रविवार तथा चन्द्रमा और सूर्यके ग्रहणके दिन दाँतुन नहीं ले और भूमिको तिनकेसे ढककर अपने मस्तकको करना चाहिये। व्रत और श्राद्धके दिन भी लकड़ीकी वस्त्रसे आच्छादित कर ले। शौचके समय मुखको दाँतुन करना मना है, उन दिनों जलके बारह कुल्ले करके यत्नपूर्वक मूंदे रखे। न तो थूके और न मुँहसे ऊपरको मुख शुद्ध करनेका विधान है। काँटेदार वृक्ष, कपास, साँस ही खींचे। मलत्यागके पश्चात् गुदाभाग तथा सिन्धुवार, ब्रह्मवृक्ष (पलाश), बरगद, एरण्ड (रेड) हाथको इस प्रकार धोये, जिससे मलका लेप और दुर्गन्ध और दुर्गन्धयुक्त वृक्षोंको लकड़ीको दाँतुनके काममें नहीं दूर हो जाय । इस कार्यमें आलस्य नहीं करना चाहिये। लेना चाहिये। फिर स्नान करनेके पश्चात् भक्तिपरायण पाँच बार गुदामें, दस बार बायें हाथमें तथा सात-सात एवं प्रसन्नचित्त होकर चन्दन, फूल और ताम्बूल आदि बार दोनों हाथोंमें मिट्टी लगाकर धोये। फिर एक बार पूजाको सामग्री ले भगवान् विष्णु अथवा शिवके लिङ्गमें, तीन बार बायें हाथमें और दो-दो बार दोनों मन्दिरमें जाय। वहाँ भगवान्को पृथक्-पृथक् पाद्यहाथोंमें मिट्टी लगाकर धोये । यह गृहस्थके लिये शौचकी अर्घ्य आदि उपचार अर्पण करके स्तुति करे तथा पुनः विधि बतायी गयी। ब्रह्मचारीके लिये इससे दूना, नमस्कार करके गीत आदि माङ्गलिक उत्सवका प्रबन्ध वानप्रस्थके लिये तिगुना और संन्यासीके लिये चौगुना करे। ताल, वेणु और मृदङ्ग आदि बाजोंके साथ करनेका विधान है। रातको दिनकी अपेक्षा आधे शौच भगवानके सामने नृत्य और गान करनेवाले लोगोका भी (मिट्टी लगाकर धोने) का नियम है। रास्ता चलनेवाले ताम्बूल आदिके द्वारा सत्कार करे। जो भगवान्के व्यक्तिके लिये, स्वीके लिये तथा शूद्रोंके लिये उससे भी मन्दिरमें गान करते हैं, वे साक्षात् विष्णुरूप हैं। आधे शौचका विधान है। शौचकर्मसे हीन पुरुषकी कलियुगमे किये हुए यज्ञ, दान और तप भक्तिसे युक्त समस्त क्रियाएँ निष्फल होती हैं। जो अपने मुँहको होनेपर ही जगदगुरु भगवान्को संतोष देनेवाले होते हैं।
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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