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________________ उत्तरखण्ड ] • श्रीगङ्गाजीकी महिमा तथा श्रीविष्णु-प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य . कौन-कौन-से है? सिद्ध पुरुषको आया देख गृहस्थने उनका विधिपूर्वक भीष्मजीने कहा-युधिष्ठिर ! इस विषयमें एक आतिथ्य-सत्कार किया। तत्पश्चात् उनसे पूछाप्राचीन इतिहास बतलाया जाता है, जिसमें शिल और द्विजवर ! कौन-कौनसे देश, पर्वत और आश्रम पवित्र उञ्छवृत्तिसे जीविका चलानेवाले ब्राह्मणका किसी सिद्ध हैं? मुझे प्रेमपूर्वक बतानेकी कृपा कीजिये। पुरुषके साथ हुए संवादका वर्णन है। कोई सिद्ध पुरुष सिद्ध पुरुषने कहा-ब्रह्मन् ! जिनके बीच समूची पृथ्वीकी परिक्रमा करके किसी उच्छवृत्तिवाले नदियोंमें श्रेष्ठ त्रिपथगा गङ्गाजी सदा बहती रहती हैं, वे महात्मा गृहस्थके घर गये। वे आत्मविद्याके तत्त्वज्ञ, सदा ही देश, वे ही जनपद, वे ही पर्वत और वे ही आश्रम अपनी इन्द्रियोंको काबूमें रखनेवाले, राग-द्वेषसे रहित, परम पवित्र हैं। जीव गङ्गाजीका सेवन करके जिस ज्ञान-कर्ममें कुशल, वैष्णवोंमें श्रेष्ठ, वैष्णव-धर्मके गतिको प्राप्त करता है, उसे तपस्या, ब्रह्मचर्य, यज्ञ अथवा पालनमें तत्पर, वैष्णवोंकी निन्दासे दूर रहनेवाले, त्यागसे भी नहीं पा सकता।* अपने मनको संयममे योगाभ्यासी, त्रिकालपूजाके तत्त्वज्ञ, वेदविद्यामें निपुण, रखनेवाले पुरुषोंको गङ्गाजीके जलमें नान करनेसे जो धर्माधर्मका विचार करनेवाले, नित्य नियमपूर्वक वेदपाठ संतोष होता है, वह सौ यज्ञोंके अनुष्ठानसे भी नहीं हो करनेवाले और सदा अतिथिपूजामें तत्पर रहनेवाले थे। सकता। जैसे सूर्य उदयकालमें तीव्र अन्धकारका नाश करके तेजसे उद्भासित हो उठता है, उसी प्रकार गङ्गाजीके जलमें डुबकी लगानेवाला मनुष्य पापोंका नाश करके पुण्यसे प्रकाशमान होने लगता है। विप्र ! जैसे आगका संयोग पाकर रूईका ढेर जल जाता है, उसी प्रकार गङ्गाका स्रान मनुष्यके सारे पापोंको दूर कर देता है। जो मनुष्य सूर्यको किरणोंसे तपे हुए गङ्गाजलका पान करता है, वह सब रोगोंसे मुक्त हो जाता है। जो पुरुष एक पैरसे खड़ा होकर एक हजार चान्द्रायण व्रतोका अनुष्ठान करता है और जो केवल गङ्गाजीके जलमें डुबकी लगाता है-इन दोनोंमें डुबकी लगानेवाला मनुष्य ही श्रेष्ठ है। जो दस हजार वर्षांतक नीचे सिर करके लटका रहता है, उसकी अपेक्षा भी वही मनुष्य श्रेष्ठ है जो एक मास भी गङ्गाजलका सेवन कर लेता है। नरश्रेष्ठ ! गङ्गाजीमें स्नान करके मनुष्य देहत्यागके पश्चात् तुरंत वैकुण्ठमें चला जाता है। जो सौ योजन दूरसे भी 'गङ्गा-गङ्गा'का उच्चारण करता है, वह मा सकृदुश्चरितं येन हरिरित्यक्षरद्वयम् । बद्धः परिकरस्तेन •मोक्षाय गमन प्रति ।। लाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः । येषामिन्दोवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः ॥ (८१ ॥ १६३-१६५) * तपसा ब्रह्मचर्येण योस्त्यागेन वा पुनः । गति तां न लभेजन्तुगङ्गा संसेव्य यां लभेत् ॥ ६८२ । २४) * अपहत्य तमस्तीवं यथा भात्युदये रविः । तथापहत्य पाप्णानं भाति गङ्गाजलाप्लतः॥ अग्निं प्राप्य यथा विप्र तूलराशिविनश्यति । तथा गावगाहश्च सर्वपापं व्यपोहति ॥ (८२ । २६-२७)
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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