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________________ • अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पद्मपुराण पड़ता, उसका सारा अङ्ग जलता और सूखता जाता है। इन्द्रियोंका दमन नहीं किया, उसके वनमें रहनेसे क्या भूखकी आग प्रज्वलित होनेपर मनुष्य गूंगा, बहरा, जड, लाभ । तथा जिसने मन और इन्द्रियोंका भलीभाँति दमन पङ्ग, भयंकर तथा मर्यादाहीन हो जाता है। लोग क्षुधासे किया है, उसको [घर छोड़कर] किसी आश्रममें रहनेकी पीड़ित होनेपर पिता-माता, स्त्री, पुत्र, कन्या, भाई तथा क्या आवश्यकता है। जितेन्द्रिय पुरुष जहाँ-जहाँ निवास स्वजनोंका भी परित्याग कर देते हैं। भूखसे व्याकुल करता है, उसके लिये वही-वही स्थान वन एवं महान् मनुष्य न पितरोंकी भलीभाँति पूजा कर सकता है न आश्रम है। जो उत्तम शील और आचरणमें रत है, देवताओंकी, न गुरुजनोंका सत्कार कर सकता है न जिसने अपनी इन्द्रियोंको काबूमें कर लिया है तथा जो ऋषियों तथा अभ्यागतोंका। सदा सरल भावसे रहता है, उसको आश्रमोंसे क्या इस प्रकार अन्न न मिलनेपर देहधारी प्राणियोंमें ये प्रयोजन ? विषयासक्त मनुष्योंसे वनमें भी दोष बन जाते सभी दोष आ जाते हैं। इसलिये संसारमें अनसे बढ़कर हैं तथा घरमें रहकर भी यदि पाँचों इन्द्रियोका निग्रह कर न तो कोई पदार्थ हुआ है, न होगा। अन्न ही संसारका लिया जाय तो वह तपस्या ही है। जो सदा शुभ कर्ममें मूल है। सब कुछ अत्रके ही आधारपर टिका हुआ है। ही प्रवृत्त होता है, उस वीतराग पुरुषके लिये घर ही पितर, देवता, दैत्य, यक्ष, राक्षस, किन्नर, मनुष्य और तपोवन है। केवल शब्द-शास्त्र-व्याकरणके चिन्तनमें पिशाच-सभी अनमय माने गये हैं; इसलिये अन्नदान लगे रहनेवालेका मोक्ष नहीं होता तथा लोगोंका मन करनेवालेको अक्षय तृप्ति और सनातन स्थिति प्राप्त होती बहलाने में ही जिसकी प्रवृत्ति है, उसको भी मुक्ति नहीं है। तप, सत्य, जप, होम, ध्यान, योग, उत्तम गति, स्वर्ग मिलती। जो एकान्तमें रहकर दृढ़तापूर्वक नियमोंका और सुखकी प्राप्ति-ये सब कुछ अन्नसे ही सुलभ होते पालन करता, इन्द्रियोंकी आसक्तिको दूर हटाता, हैं। चन्दन, अगर, धूप और शीतकालमें ईंधनका दान अध्यात्मतत्त्वके चिन्तनमें मन लगाता और सर्वदा अन्नदानके सोलहवें हिस्सेके बराबर भी नहीं हो सकता। अहिंसा-व्रतका पालन करता है, उसीका मोक्ष निश्चित अन्न ही प्राण, बल और तेज है। अन्न ही पराक्रम है, है। जितेन्द्रिय पुरुष सुखसे सोता और सुखसे जागता है। अन्नसे ही तेजकी उत्पत्ति और वृद्धि होती है। जो मनुष्य वह सम्पूर्ण भूतोंके प्रति समान भाव रखता है। उसके श्रद्धापूर्वक भूखेको अन देता है, वह ब्रह्मस्वरूप होकर मनमें हर्ष-शोक आदि विकार नहीं आते। छेड़ा हुआ ब्रह्माजीके साथ आनन्द मनाता है। जो एकाग्रचित्त होकर सिंह, अत्यन्त रोषमें भरा हुआ सर्प तथा सदा कुपित अमावास्याको श्राद्धमें अनदानका माहात्म्यमात्र सुनाता रहनेवाला शत्रु भी वैसा अनिष्ट नहीं कर सकता, जैसा है; उसके पितर आजीवन सन्तुष्ट रहते हैं। संयमरहित चित्त कर डालता है। इन्द्रिय-संयम और मनोनिग्रहसे युक्त ब्राह्मण सुखी मांसभक्षी प्राणियों तथा अजितेन्द्रिय मनुष्योंसे एवं धर्मके भागी होते हैं। दम, दान एवं यम-ये तीनों लोगोंको सदा भय रहता है, अतः उनके निवारणके लिये तत्त्वार्थदर्शी पुरुषोंद्वारा बताये हुए धर्म है। इनमें भी ब्रह्माजीने दण्डका विधान किया है। दण्ड ही प्राणियोंकी विशेषतः दम ब्राह्मणोंका सनातन धर्म है। दम तेजको रक्षा और प्रजाका पालन करता है। वही पापियोंको बढ़ाता है, दम परम पवित्र और उत्तम है। दमसे पुरुष पापसे रोकता है। दण्ड सबके लिये दुर्जय होता है। वह पापरहित एवं तेजस्वी होता है। संसारमें जो कुछ नियम, सब प्राणियोंको भय पहुँचानेवाला है। दण्ड ही मनुष्योंका धर्म, शुभ कर्म अथवा सम्पूर्ण यज्ञोंके फल हैं, उन शासक है, उसीपर धर्म टिका हुआ है। सम्पूर्ण आश्रमों सबकी अपेक्षा दमका महत्त्व अधिक है। दमके बिना और समस्त भूतोंमें दम ही उत्तम व्रत माना गया है। दानरूपी क्रियाकी यथावत् शुद्धि नहीं हो सकती। दमसे उदारता, कोमल स्वभाव, सन्तोष, दोष-दृष्टिका अभाव, ही यज्ञ और दमसे ही दानकी प्रवृत्ति होती है। जिसने गुरु-शुश्रूषा, प्राणियोंपर दया और चुगली न करना
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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