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________________ उत्तरखण्ड ] . . नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रका वर्णन . असुरान्तकः-संसारमें अशान्ति फैलानेवाले असुरोंके अमितपराक्रमी, २२० सर्वमङ्गल:-सबका मङ्गल प्राणहन्ता, २०३ सर्वदुष्टान्तकृत्-समस्त दुष्टोंका करनेवाले अथवा सबके लिये मङ्गलरूप, २२१ सूर्यअन्त करनेवाले, २०४ सर्वसज्जनानन्यपालक:- कोटिप्रतीकाशः-करोड़ों सूर्योके समान तेजस्वी, सम्पूर्ण साधु पुरुषोके एकमात्र पालक ॥१५०॥ २२२ यमकोटिदुरासदः-करोड़ों यमराजोंके लिये सप्तलोकैकजठरः सप्तलोकैकमण्डनः। भी दुर्धर्षं ।। १५३ ॥ सृष्टिस्थित्यन्तकृचक्री शार्ङ्गधन्वा गदाधरः ॥ १५१ ।। कन्दर्यकोटिलावण्यो दुर्गाकोव्यरिमर्दनः । २०५ सप्तलोकैकजठर:-भूलोक, भुवोक, समुद्रकोटिगम्भीरस्तीर्थकोटिसमाह्वयः ॥ १५४ ॥ स्खलोंक, महलोंक, जनलोक, तपोलोक और सत्य- २२३ कन्दर्पकोटिलावण्यः-करोड़ों लोक-इन सातों लोकोंको अपने एकमात्र उदरमें कामदेवोंके समान मनोहर कान्तिवाले, २२४ स्थापित करनेवाले, २०६ सप्तलोकैकमण्डनः- दुर्गाकोट्यरिमर्दनः-करोड़ों दुर्गाओंके समान सातो लोकोंके एकमात्र शृङ्गार-अपनी ही शोभासे शत्रुओको रौंद डालनेवाले, २२५ समुद्रकोटिसमस्त लोकोंको विभूषित करनेवाले, २०७ सृष्टि- गम्भीर:-करोड़ों समुद्रोंके समान गम्भीर, २२६ स्थित्यन्तकृत्-संसारकी सृष्टि, पालन और संहार तीर्थकोटिसमायः-करोड़ों तीर्थोके समान पावन करनेवाले, २०८ चक्री-सुदर्शन चक्र धारण नामवाले ॥ १५४ ॥ करनेवाले, २०९ शार्ङ्गधन्वा-शाङ्ग नामक धनुष ब्रह्मकोटिजगत्स्रष्टा वायुकोटिमहाबलः । धारण करनेवाले, २१० गदाधरः-कौमोदको नामको कोटीन्दुजगदानन्दी शम्भुकोटिमहेश्वरः ॥ १५५ ॥ गदा धारण करनेवाले॥१५१ ॥ २२७ ब्रह्मकोटिजगत्स्रष्टा-करोड़ों ब्रह्माओंके शबभनन्दकी पद्मपाणिर्गरुड़वाहनः । समान संसारकी सृष्टि करनेवाले, २२८ वायुकोटिअनिर्देश्यवपुः सर्वपूज्यस्बैलोक्यपावनः ।। १५२ ।। महाबलः-करोड़ो वायुओंके तुल्य महाबली, २२९ २११ शलभृत्-एक हाथमें पाञ्चजन्य नामक कोटीन्दुजगदानन्दी-करोड़ो चन्द्रमाओंकी भांति शङ्ख लिये रहनेवाले, २१२ नन्दकी-नन्दक नामक जगत्को आनन्द प्रदान करनेवाले, २३० शम्भुकोटिखड्ग (तलवार) बाँधनेवाले, २१३ परापाणि:- महेश्वरः-करोड़ों शङ्करोंके समान महेश्वर (महान् हाथमें कमल धारण करनेवाले, २१४ गरुड़वाहन:- ऐश्वर्यशाली) ॥ १५५॥ पक्षियोंके राजा विनतानन्दन गरुड़पर सवारी करनेवाले, कुवेरकोटिलक्ष्मीवाज्याक्रकोटिविलासवान् । २१५ अनिर्देश्यवपुः-जिसके दिव्यस्वरूपका किसी हिमवत्कोटिनिष्कम्पः कोटिब्रह्माण्डविप्रहः ॥ १५६ ।। प्रकार भी वर्णन या संकेत न किया जा सके-ऐसे २३१ कुबेरकोटिलक्ष्मीवान्-करोड़ों कुबेरोंके अनिर्वचनीय शरीरवाले, २१६ सर्वपूज्यः-देवता, समान सम्पत्तिशाली, २३२ शक्रकोटिविलासवान्दानव और मनुष्य आदि-सबके पूजनीय, २१७ करोड़ों इन्द्रोंके सदृश भोग-विलासके साधनोंसे परिपूर्ण, त्रैलोक्यपावन:-अपने दर्शन और स्पर्श आदिसे २३३ हिमवत्कोटिनिष्कम्यः-करोड़ों हिमालयोंकी त्रिभुवनको पावन बनानेवाले ॥ १५२॥ भाँति अचल, २३४ कोटिब्रह्माण्डविग्रहः-अपने अनन्तकीर्तिनिःसीमपौरुषः सर्वमङ्गलः। . . श्रीविग्रहमें कोटि-कोटि ब्रह्माण्डोंको धारण करनेवाले, सूर्यकोटिप्रतीकाशो यमकोटिदुरासदः ।। १५३ ॥ महाविरारूप ॥१५६ ॥ : .. ___२१८ अनन्तकीर्तिः-शेष और शारदा भी कोट्यश्वमेधपापनो यज्ञकोटिसमार्चनः । जिनकी कीर्तिका पार न पा सके-ऐसे अपार सुयश- सुभाकोटिस्वास्थ्यहेतुः कामधुकोटिकामदः ॥ १५७ ॥ वाले, २१९ निःसीमपौरुषः-असीम पुरुषार्थवाले, - २३५ कोट्यश्वमेधपापघ्नः-करोड़ों अश्वमेध
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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