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________________ ६९० • अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [ संक्षिप्त पद्मपुराण . . . . . .. . . . . . . . .. . . . . भयङ्कर प्रेत उधर ही आ रहा था। वह उस भयानक द्वादशीके योगमे बहुत-से मनुष्योको संतुष्ट किया। जंगलमें मनुष्यको आया देख प्रेतके कंधेसे पृथ्वीपर उतर चन्द्रभागाके उत्तम जलसे भरकर ब्राह्मणको जलपात्र दान पड़ा और बनियेके पास आकर उसे प्रणाम करके इस किया तथा दही और भातके साथ जलसे भरे हुए प्रकार बोला-'इस घोर प्रदेशमें आपका कैसे प्रवेश बहुत-से पुरवे भी ब्राह्मणोंको दिये । इसके सिवा भगवान् हुआ?' यह सुनकर उस बुद्धिमान् बनियेने कहा- शङ्करके समक्ष श्रेष्ठ ब्राह्मणको छाता, जूते, वस्त्र तथा 'दैवयोगसे तथा पूर्वजन्मके किये हुए कर्मकी प्रेरणासे मैं श्रीहरिकी प्रतिमा भी दान की। उस नदीके तौरपर मैंने अपने साथियोंसे बिछुड़ गया हूँ। इस प्रकार मेरा यहाँ धनको रक्षाके लिये व्रत किया था। उपवासपूर्वक एक प्रवेश सम्भव हुआ है। इस समय मुझे बड़े जोरकी भूख मनोहर जलपात्र भी दान किया था। यह सब करके मैं और प्यास सता रही है।' घर लौट आया। तदनन्तर, कुछ कालके बाद मेरी मृत्यु तब उस प्रेतने उस समय अपने अतिथिको उत्तम हो गयी। नास्तिक होनेके कारण मुझे प्रेतकी योनिमें अन्न प्रदान किया। उसके खानेमात्रसे बनियेको बड़ी तृप्ति आना पड़ा। श्रवण-द्वादशीके योगमें मैंने जलका बड़ा हुई। वह एक ही क्षणमें प्यास और संतापसे रहित हो पात्र दान किया था, इसलिये प्रतिदिन मध्याह्नके समय गया। इसके बाद वहाँ बहुत-से प्रेत आ पहुँचे। प्रधान यह मुझे प्राप्त होता है। ये सब ब्राह्मणका धन चुरानेवाले प्रेतने क्रमशः उन सबको अत्रका भाग दिया। दही, भात पापी हैं, जो प्रेतभावको प्राप्त हुए हैं। इनमें कुछ और जलसे उन्हें बड़ी प्रसन्नता और तृप्ति हुई। इस प्रकार परस्त्रीलम्पट और कुछ अपने स्वामीसे द्रोह करनेवाले रहे अतिथि और प्रेतसमुदायको तृप्त करके उसने स्वयं भी हैं। इस मरुप्रदेशमें आकर ये मेरे मित्र हो गये हैं। बचे हुए अन्नका सुखपूर्वक भोजन किया। उसके भोजन सनातन परमात्मा भगवान् विष्णु अक्षय (अविनाशी) कर लेनेपर वहाँ जो सुन्दर अन्न और जल प्रस्तुत हुआ हैं। उनके उद्देश्यसे जो कुछ दिया जाता है, वह सब था, वह सब अदृश्य हो गया। तब बनियेने उस अक्षय कहा गया है। उस अक्षय अन्नसे ही ये प्रेत पुन:प्रेतराजसे कहा-'भाई ! इस वनमें तो मुझे यह बड़े पुनः तृप्त होते रहते हैं। आज तुम मेरे अतिथिके रूपमें आश्चर्यकी बात प्रतीत हो रही है। तुम्हें यह उत्तम अन्न उपस्थित हुए हो। मैं अन्नसे तुम्हारी पूजा करके प्रेत और जल कहाँसे प्राप्त हुआ? तुमने थोड़े-से ही अन्नसे भावसे मुक्त हो परमगतिको प्राप्त होऊँगा, परन्तु मेरे विना इन बहुत-से जीवोंको तृप्त कर दिया। इस घोर जंगलमें ये प्रेत इस भयङ्कर वनमें कर्मानुसार प्राप्त हुई प्रेतयोनिकी तुमलोग कैसे निवास करते हो?' दुस्सह पीड़ा भोगेंगे; अतः तुम मुझपर कृपा करनेके लिये प्रेत बोला-महाभाग ! मैंने अपना पूर्वजन्म इन सबके नाम और गोत्र लिखकर ले लो। महामते ! केवल वाणिज्य-व्यवसायमें आसक्त होकर व्यतीत यहाँसे हिमालयपर जाकर तुम खजाना प्राप्त करोगे। किया है। समूचे नगरमें मेरे समान दूसरा कोई दुरात्मा तत्पश्चात् गया जाकर इन सबका श्राद्ध कर देना।। नहीं था। धनके लोभसे मैंने कभी किसीको भीखतक , महादेवजी कहते हैं-नारद ! बनियेको इस नहीं दी। उन दिनों एक गुणवान् ब्राह्मण मेरे मित्र थे। प्रकार आदेश देकर प्रेतने उसे सुखपूर्वक विदा किया। एक समय भादोंके महीनेमें, जब श्रवण नक्षत्र और घर आनेपर उसने हिमालयको यात्रा को और वहाँसे द्वादशीका योग आया था, वे मुझे साथ लेकर तापी प्रेतका बताया हुआ खजाना लेकर वह लौट आया। उस नदीके तटपर गये, जहाँ उसका चन्द्रभागा नदीके साथ खजानेका छठा अंश साथ लेकर वह 'गया' तीर्थमें पवित्र संगम हुआ था, चन्द्रभागा चन्द्रमाको पुत्री है और गया। वहाँ पहुँचकर उस परम बुद्धिमान् बनियेने तापी सूर्यकी। उन दोनोंके मिले हुए शीत और उष्ण शास्त्रोक्त विधिसे उन प्रेतोंका श्राद्ध किया। एक-एकके जलमें मैंने ब्राह्मणके साथ प्रवेश किया। श्रवण- नाम और गोत्रका उधारण करके उनके लिये पिण्डदान
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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