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________________ ६८६ • अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् । [ संक्षिप्त पद्मपुराण नमस्कार है। वारम्बार नमस्कार है। इन सभी मन्त्रोंके लिये मैं यह अर्घ्य दे रहा हूँ। जो जन्म, मृत्यु और द्वारा श्रीविष्णुका ध्यान करके उनका पूजन करे।* वृद्धावस्थासे परे है, पापी पुरुषोंके लिये जिसको पार तत्पश्चात् निम्नाङ्कित नाममन्त्रोंके द्वारा भगवान् करना अत्यन्त कठिन है, जो समस्त प्राणियोंके भयका धर्मराजका पूजन करना चाहिये निवारण करनेवाली है तथा यातनामें पड़े हुए प्राणी धर्मराज नमस्तेऽस्तु धर्मराज नमोऽस्तु ते। भयके मारे जिसमें डूब जाते हैं, उस भयङ्कर वैतरणी दक्षिणाशाय ते तुभ्यं नमो महिषवाहन ।। नदीको पार करनेके लिये मैंने यह पूजन किया है। चित्रगुप्त नमस्तुभ्यं विचित्राय नमो नमः । वैतरणी देवी ! तुम्हारी जय हो। तुम्हें बारम्बार नमस्कार नरकार्तिप्रशान्त्यर्थं कामान् यच्छ ममेप्सितान् ॥ है। जिसमें देवता वास करते हैं, वहीं वैतरणी नदी है। यमाय धर्मराजाय मृत्यवे चान्तकाय च। मैंने भगवान् केशवकी प्रसन्नताके लिये भक्तिपूर्वक उस वैवस्वताय कालाय सर्वभूतक्षयाय च ॥ नदीका पूजन किया है। पापोका नाश करनेवाली सिन्धुवृकोदराय चित्राय चित्रगुप्ताय वै नमः। रूपिणी वैतरणी नदीको पूजा सम्पन्न हुई। मैं उसे पार नीलाय चैव दनाय नित्यं कुर्यान्नमो नमः ॥ करने तथा सब पापोसे छुटकारा पानेके लिये इस (६८ ५३–५६) वैतरणी-प्रतिमाका दान करता हूँ।' 'धर्मराज! आपको बारम्बार नमस्कार है। दक्षिण इसके बाद निम्नाङ्कित मन्त्र पढ़कर भगवान्से दिशाके स्वामी ! आपको नमस्कार है। महिषपर चलने- प्रार्थना करेवाले देवता ! आपको नमस्कार है। चित्रगुप्त ! आपको कृष्ण कृष्ण जगन्नाथ संसारादुद्धरस्य माम् ।। नमस्कार है। नरककी पीड़ा शान्त करनेके लिये विचित्र नामग्रहणमात्रेण सर्वपापं हरस्व मे। नामसे प्रसिद्ध आपको नमस्कार है।आप मेरी मनोवाञ्छित (६८।६४-६५) कामनाएं पूर्ण करें। यम, धर्मराज, मृत्यु, अन्तक, वैवस्वत, 'कृष्ण ! कृष्ण ! जगदीश्वर ! आप संसारसे मेरा काल, सर्वभूत-क्षय, वृकोदर, चित्र, चित्रगुप्त, नील और उद्धार कीजिये। अपने नामोंके कीर्तनमात्रसे मेरा सारा दधको नित्य नमस्कार करना चाहिये।' पाप हर लीजिये। तदनन्तर वैतरणीको प्रतिमाको अर्घ्य देते हुए इस फिर क्रमशः यज्ञोपवीत आदि समर्पण करे। प्रकार कहे-'वैतरणी ! तुम्हें पार करना अत्यन्त कठिन यज्ञोपवीतका मन्त्र इस प्रकार हैहै। तुम पापोका नाश करनेवाली और सम्पूर्ण अभीष्ट यज्ञोपवीतं परमं कारितं नवतन्तुभिः ।। वस्तुओंको देनेवाली हो। महाभागे ! यहाँ आओ और प्रतिगृहीच देवेश प्रीतो यच्छ ममेप्सितम् । मेरे दिये हुए अर्यको ग्रहण करो। यमद्वारके भयङ्कर (६८॥ ६५-६६) मार्गमें वैतरणी नदी विख्यात है। उससे उद्धार पानेके 'देवेश्वर ! मैंने नौ तन्तुओसे इस उत्तम * आवाहयामि देवेश यमं वै विश्वरूपिणम् । इहाभ्येहि महाभाग सांनिध्यं कुरु केशव॥ इदं पाद्यं श्रियः कान्त सोपविष्ट हरे प्रभो । विश्वौघाय नमो नित्यं कृपां कुरु ममोपरि ।। भूतिदाय नमः पादौ अशोकाय च जानुनी । ऊरू नमः शिवायेति विश्वमूर्ते नमः कटिम्॥ कन्दर्पाय नमो मेदमादित्याय फल तथा । दामोदराय जठरं वासुदेवाय वै स्तनौ ॥ श्रीधराय मुख केशान् केशवायेति वै नमः । पृष्ठ शाइधरायेति चरणौ वरदाय च॥ स्वनाम्ना शङ्खचक्रासिंगदापरशुपाणये । सर्वाताने नमस्तुभ्यं शिर इत्यभिधीयते ॥ - मा. मत्स्यं कूर्म च वाराहं नारसिंहं च वामनम् । राम राम च कृष्ण च बुद्ध कल्कि नमोऽस्तु ते ॥ सर्वपापौघनाशार्थ पूजयामि नमो नमः । एभिश्च सर्वशी नवैर्विष्णु ध्यात्वा प्रपूजयेत् ।। (६८।४५-५२)
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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