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________________ ६६८ • अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पद्मपुराण चढ़ानेपर मोक्षरूपी फल प्रदान करती है, उस तुलसी किया और किसीको द्वेषका पात्र नहीं समझा। फिर क्या देवीको नमस्कार है।* जो मनुष्य एकादशीको दिन-रात कारण है, जो मेरे घरमें आजतक पुत्र उत्पन्न नहीं हुआ। दीपदान करता है, उसके पुण्यकी संख्या चित्रगुप्त भी नहीं आपलोग इसका विचार करें।' जानते। एकादशीके दिन भगवान् श्रीकृष्णके सम्मुख राजाके ये वचन सुनकर प्रजा और पुरोहितोंके साथ जिसका दीपक जलता है, उसके पितर स्वर्गलोकमें स्थित ब्राह्मणोंने उनके हितका विचार करके गहन वनमें प्रवेश होकर अमृतपानसे तृप्त होते हैं। घी अथवा तिलके किया। राजाका कल्याण चाहनेवाले वे सभी लोग इधरतेलसे भगवानके सामने दीपक जलाकर मनुष्य देह- उधर घूमकर ऋषिसेवित आश्रमोंकी तलाश करने लगे। त्यागके पश्चात् करोड़ों दीपकोंसे पूजित हो स्वर्गलोकमें इतनेहीमें उन्हें मुनिश्रेष्ठ लोमशका दर्शन हुआ। लोमशजी जाता है। धर्मक तत्वज्ञ, सम्पूर्ण शास्त्रोंके विशिष्ट विद्वान, दीर्घायु भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं-युधिष्ठिर ! यह और महात्मा हैं। उनका शरीर लोमसे भरा हुआ है। वे तुम्हारे सामने मैंने कामिका एकादशीकी महिमाका वर्णन ब्रह्माजीके समान तेजस्वी है। एक-एक कल्प बीतनेपर किया है। 'कामिका' सब पातकोंको हरनेवाली है; अतः उनके शरीरका एक-एक लोम विशीर्ण होता-टूटकर मानवोंको इसका व्रत अवश्य करना चाहिये। यह गिरता है; इसीलिये उनका नाम लोमश हुआ है। वे स्वर्गलोक तथा महान् पुण्यफल प्रदान करनेवाली है। जो महामुनि तीनों कालोंकी बातें जानते हैं। उन्हें देखकर सब मनुष्य श्रद्धाके साथ इसका माहात्म्य श्रवण करता है, लोगोंको बड़ा हर्ष हुआ। उन्हें निकट आया देख वह सब पापोंसे मुक्त हो श्रीविष्णुलोकमें जाता है। लोमशजीने फूछा-'तुम सब लोग किसलिये यहाँ आये युधिष्ठिरने पूछा-मधुसूदन ! श्रावणके शुक्लपक्षमें किस नामकी एकादशी होती है? कृपया मेरे सामने उसका वर्णन कौजिये। भगवान् श्रीकृष्ण बोले-राजन् ! प्राचीन कालकी बात है, द्वापर युगके प्रारम्भका समय था, माहिष्मतीपुरमें राजा महीजित् अपने राज्यका पालन करते थे, किन्तु उन्हें कोई पुत्र नहीं था; इसलिये वह राज्य उन्हें सुखदायक नहीं प्रतीत होता था। अपनी अवस्था अधिक देख राजाको बड़ी चिन्ता हुई। उन्होंने प्रजावर्गमें बैठकर इस प्रकार कहा-'प्रजाजनो! इस जन्म में मुझसे कोई पातक नहीं हुआ। मैंने अपने खजानेमें अन्यायसे कमाया हुआ धन नहीं जमा किया है। ब्राह्मणों और देवताओका धन भी मैंने कभी नहीं लिया है। प्रजाका पुत्रवत् पालन किया, धर्मसे पृथ्वीपर अधिकार जमाया तथा दुष्टोंको, वे बन्धु और पुत्रोंके समान ही क्यों न रहे हों, दण्ड दिया है। शिष्ट पुरुषोंका सदा सम्मान MAA * या दृष्टा निखिलायसंघशमनी स्पृष्टा वपुष्पावनी रोगाणामभिवन्दिता निरसनी सिक्तान्तकत्रासिनी । प्रत्यासत्तिविधायिनी भगवतः कृष्णस्य सरोपिता न्यस्ता तचरणे विमुक्तिफलदा तस्यै तुलस्यै नमः॥ (५६ । २२)
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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