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________________ . अर्थयस्व वोकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पयपुराण महादेवजी कहते है-ये दोनों वर पाकर राजा हैं। आपको सदा-सर्वदा नमस्कार है। ज्ञाननेत्र ! आपको बड़े प्रसन्न हुए, उनके शरीरमें रोमाश हो आया। वे प्रणाम है। कश्यपनन्दन सूर्यके पुत्र शनिदेव ! आपको रथके ऊपर धनुष डाल हाथ जोड़ शनिदेवकी इस प्रकार नमस्कार है। आप संतुष्ट होनेपर राज्य दे देते हैं और रुष्ट स्तुति करने लगे। होनेपर उसे तत्क्षण हर लेते हैं। देवता, असर, मनुष्य, दशरथ बोले-जिनके शरीरका वर्ण कृष्ण, नील सिद्ध, विद्याधर और नाग-ये सब आपकी दृष्टि पड़नेतथा भगवान् शङ्करके समान है, उन शनिदेवको नमस्कार पर समूल नष्ट हो जाते हैं। देव ! मुझपर प्रसन्न होइये। है। जो जगतके लिये कालाग्नि एवं कृतान्तरूप हैं, उन मैं वर पानेके योग्य हैं और आपकी शरणमें आया हूँ।* शनैश्चरको बारम्बार नमस्कार है। जिनका शरीर कङ्काल है महादेवजी कहते हैं-नारद ! राजाके इस प्रकार तथा जिनकी दाढ़ी-मूंछ और जटा बढ़ी हुई है, उन स्तुति करनेपर ग्रहोंके राजा महाबलवान् सूर्यपुत्र शनैश्चर शनिदेवको प्रणाम है । जिनके बड़े-बड़े नेत्र, पौठमें सटा बोले-उत्तम व्रतके पालक राजेन्द्र ! तुम्हारी इस स्तुतिसे हुआ पेट और भयानक आकार हैं, उन शनैश्चरदेवको मैं संतुष्ट हूँ। रघुनन्दन ! तुम इच्छानुसार वर मांगो, मैं नमस्कार है। जिनके शरीरका ढाँचा फैला हुआ है, जिनके तुम्हें अवश्य दूंगा। रोएँ बहुत मोटे हैं, जो लम्बे-चौड़े किन्तु सूखे शरीरवाले दशरथ बोले-सूर्यनन्दन ! आजसे आप देवता, हैं तथा जिनकी दाढ़ें कालरूप हैं, उन शनिदेवको असुर, मनुष्य, पशु, पक्षी तथा नाग-किसी भी बारम्बार प्रणाम है। शने ! आपके नेत्र खोखलेके समान प्राणीको पीड़ा न दें। गहरे हैं, आपकी ओर देखना कठिन है, आप घोर, रौद्र, शनिने कहा-राजन् ! देवता, असुर, मनुष्य, भीषण और विकराल हैं। आपको नमस्कार है। सिद्ध, विद्याधर तथा राक्षस-इनमेंसे किसीके भी मृत्युबलीमुख ! आप सब कुछ भक्षण करनेवाले हैं। आपको स्थान, जन्मस्थान अथवा चतुर्थ स्थानमें मैं रहूँ तो उसे नमस्कार है। सूर्यनन्दन ! भास्करपुत्र ! अभय देनेवाले मृत्युका कष्ट दे सकता हूँ। किन्तु जो श्रद्धासे युक्त, पवित्र देवता ! आपको प्रणाम है। नीचेकी ओर दृष्टि रखनेवाले और एकाग्रचित्त हो मेरी लोहमयी सुन्दर प्रतिमाका शनिदेव ! आपको नमस्कार है। संवर्तकं ! आपको शमीपत्रोंसे पूजन करके तिलमिश्रित उड़द-भात, लोहा, प्रणाम है। मन्दगतिसे चलनेवाले शनैश्चर ! आपका काली गौ या काला वृषभ ब्राह्मणको दान करता है तथा प्रतीक तलवारके समान है, आपको पुनः-पुनः प्रणाम है। विशेषतः मेरे दिनको इस स्तोत्रसे मेरी पूजा करता है, आपने तपस्यासे अपने देहको दग्ध कर दिया है; आप पूजनके पश्चात् भी हाथ जोड़कर मेरे स्तोत्रका जप करता सदा योगाभ्यासमें तत्पर, भूखसे आतुर और अतृप्त रहते है, उसे मैं कभी भी पीड़ा नहीं दूंगा। गोचरमें, जन्मलग्नमें, * नमः कृष्णाय नीलाय शितिकण्ठनिभाय च नमः कालाग्निरूपाय कृतान्ताय च वै नमः ।। नमो निमासदेहाय दीर्घश्मश्रुजटाय च। नमो विशालनेत्राय शुष्कोदरभयाकृते ॥ नमः पुष्कलगात्राय स्थूलमोम्णे च वै पुनः । नमो दीर्घाय शुष्काय कालदंष्ट्र नमोऽस्तु ते॥ नमस्ते कोटराक्षाय दुर्निरीक्ष्याय वै नमः । नमो घोराय औद्राय भीषणाय करालिने ॥:, . नमस्ते सर्वभक्षाय बलौमुस नमोऽस्तु ते। सूर्यपुत्र नमस्तेऽस्तु भास्करऽभयदाय च ॥ अश्रोदृष्टे नमस्तेऽस्तु संवर्तक नमोऽस्तु ते। नमो मन्दगते तुभ्यं निनिशाय नमोऽस्तु ते॥ तपसा दग्धदेहाय नित्यं योगरताय च । नमो नित्य क्षुधार्ताय अतृप्ताय च नमः ।। ज्ञानचक्षुर्नमस्तेऽस्तु कश्यपात्मजसूनवे । तुष्टो ददासि वै राज्य रुष्टो हरसि तत्क्षणात्।। देवासुरमनुष्याच सिद्धविद्याधरोरगाः । त्वया विलोकिताः सर्वे नाशं यान्ति समूलतः । प्रसादं कुरु मे देव वराहोऽहमुपागतः ।। (३४ । २७-३५)
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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