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________________ सृष्टिखण्ड] • सरस्वतीके नन्दा नाम पड़नेका इतिहास और उसका माहात्म्य . अपनी जन्मदायिनी माताको देखकर उन सबसे विदा मस्तक चाटो तथा माता, भाई, सखी, स्वजन एवं बन्धुलेकर आ जाऊँगी-मैं शपथपूर्वक यह बात कहती हूँ। बान्धवोंका दर्शन करके सत्यको आगे रखकर शीघ्र ही यदि तुम्हें विश्वास हो, तो मुझे छोड़ दो। यदि मैं पुनः यहाँ लौट आओ। लौटकर न आऊँ तो मुझे वही पाप लगे, जो ब्राह्मण तथा पुलस्त्यजी कहते हैं-वह पुत्रवत्सला धेनु बड़ी माता-पिताका वध करनेसे होता है। व्याधों, म्लेच्छों सत्यवादिनी थी। पूर्वोक्त प्रकारसे शपथ करके जब वह और जहर देनेवालोको जो पाप लगता है, वही मुझे भी व्याघ्रकी आज्ञा ले चुकी, तब गोष्ठकी ओर चली । उसके लगे। जो गोशालामें विघ्न डालते हैं, सोते हुए प्राणीको मुखपर आँसुओंकी धारा बह रही थी। वह अत्यन्त दीन मारते हैं तथा जो एक बार अपनी कन्याका दान करके भावसे काँप रही थी। उसके हृदयमें बड़ा दुःख था। वह फिर उसे दूसरेको देना चाहते हैं, उन्हें जो पाप लगता है, शोकके समुद्रमें डूबकर बारम्बार ईकराती थी। नदीके वही मुझे भी लगे। जो अयोग्य बैलोंसे भारी बोझ किनारे गोष्ठपर पहुंचकर उसने सुना, बछड़ा पुकार रहा है। उठवाता है, उसको लगनेवाला पाप मुझे भी लगे। जो आवाज कानमें पड़ते ही वह उसकी ओर दौड़ी और कथा होते समय वित्र डालता है और जिसके घरपर निकट पहुँचकर नेत्रोंसे आँसू बहाने लगी। माताको निकट आया हुआ मित्र निराश लौट जाता है, उसको जो पाप पाकर बछड़ेने शङ्कित होकर पूछा-'माँ! [आज क्या लगता है, वही मुझे भी लगे, यदि मैं पुनः लौटकर न आऊँ। इन भयंकर पातकोंके भयसे मैं अवश्य आऊँगी।' नन्दाकी ये शपथें सुनकर व्याघ्रको उसपर विश्वास हो गया। वह बोला-"गाय ! तुम्हारी इन शपथोंसे मुझे विश्वास हो गया है। पर कुछ लोग तुमसे यह भी कहेंगे कि स्त्रीके साथ हास-परिहासमें, विवाहमें, गौको संकटसे बचाने में तथा प्राण-संकट उपस्थित होनेपर जो शपथ की जाती है, उसकी उपेक्षासे पाप नहीं लगता।' किन्तु तुम इन बातोंपर विश्वास न करना। इस संसारमें कितने ही ऐसे नास्तिक हैं, जो मूर्ख होते हुए भी अपनेको पण्डित समझते हैं; वे तुम्हारी बुद्धिको क्षणभरमें भ्रममें डाल देंगे। जिनके चित्तपर अज्ञानका परदा पड़ा रहता है, वे क्षुद्र मनुष्य कुतर्कपूर्ण युक्तियों और दृष्टान्तोंसे दूसरोंको मोहमें डाल देते हैं। इसलिये तुम्हारी बुद्धिमें यह बात नहीं आनी चाहिये कि मैंने शपथोंद्वारा व्याघ्रको ठग लिया। तुमने ही मुझे धर्मका सारा मार्ग दिखाया है। हो गया है ?] मैं तुम्हें प्रसन्न नहीं देखता, तुम्हारे हृदयमें अतः इस समय तुम्हारी जैसी इच्छा हो, करो।" शान्ति नहीं दिखायी देती। तुम्हारी दृष्टिमें भी व्यग्रता है, नन्दा बोली-साधो ! तुम्हारा कथन ठीक है, आज तुम अत्यन्त डरी हुई दीख पड़ती हो।' तुम्हें कौन ठग सकता है। जो दूसरोंको ठगना चाहता है, नन्दा बोली-बेटा! स्तनपान करो, यह वह तो अपने-आपको ही ठगता है। हमलोगोंकी अन्तिम भेंट है; अबसे तुम्हें माताका दर्शन व्याघ्रने कहा-गाय ! अब तुम जाओ। दुर्लभ हो जायगा । आज एक दिन मेरा दूध पीकर कल पुत्रवत्सले ! अपने पुत्रको देखो, दूध पिलाओ, उसका सबेरेसे किसका पियोगे? वत्स ! मुझे अभी लौट जाना INORISM
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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