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________________ पातालखण्ड ] • श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन • बालिकाकी स्तुति करने लगे-'देवि ! तुम महायोगमयी मेरी धारणा है-मेरी बुद्धिमें यही बात आती है। मायासे बालकरूप धारण करनेवाले परमेश्वर महाविष्णुकी जो मायामयी अचिन्त्य विभूतियाँ हैं, वे सब तुम्हारी अंशभूता हैं। तुम आनन्दरूपिणी शक्ति और सबकी ईश्वरी हो; इसमें तनिक भी संदेहकी बात नहीं है। निश्चय ही, भगवान् श्रीकृष्ण वृन्दावनमें तुम्हारे ही साथ क्रीडा करते हैं। कुमारावस्थामें भी तुम अपने रूपसे विश्वको मोहित करनेकी शक्ति रखती हो। तुम्हारा जो स्वरूप भगवान् श्रीकृष्णको परम प्रिय है. मैं उसका दर्शन करना चाहता हूँ। महेश्वरि ! मैं तुम्हारी शरणमें आया हूँ, चरणोंमें पड़ा हूँ मुझपर दया करके इस समय अपना वह मनोहर रूप प्रकट करो, जिसे देखकर नन्द-नन्दन श्रीकृष्ण भी मोहित हो जायेंगे।' यों कहकर देवर्षि नारदजी श्रीकृष्णका ध्यान करते हुए इस प्रकार उनके गुणोंका गान करने लगे-'भक्तोंके चित्त चुरानेवाले श्रीकृष्ण ! तुम्हारी जय हो, वृन्दावनके प्रेमी गोविन्द ! तुम्हारी जय हो। बाँकी भौहोंके कारण हो, मायाको अधीश्वरी हो। तुम्हारा तेजःपुञ्ज महान् है। अत्यन्त सुन्दर, वंशी बजानेमें व्यग्र, मोरपंखका मुकुट तुम्हारे दिव्याङ्ग मनको अत्यन्त मोहित करनेवाले हैं। तुम धारण करनेवाले गोपीमोहन ! तुम्हारी जय हो, जय हो। महान् माधुर्यकी वर्षा करनेवाली हो। तुम्हारा हृदय अपने श्रीअङ्गोंमें कुङ्कम लगाकर रत्नमय आभूषण धारण अत्यन्त अद्भुत रसानुभूति-जनित आनन्दसे शिथिल करनेवाले नन्दनन्दन ! तुम्हारी जय हो, जय हो। अपने रहता है। मेरा कोई महान् सौभाग्य था, जिससे तुम मेरे किशोरस्वरूपसे प्रेमीजनोंका मन मोहनेवाले जगदीश्वर ! नेत्रोंके समक्ष प्रकट हुई हो। देवि! तुम्हारी दृष्टि सदा वह दिन कब आयगा, जब कि मैं तुम्हारी ही कृपासे तुम्हें आन्तरिक सुखमें निमग्न दिखायी देती है। तुम भीतर-ही- अभिनव तरुणावस्थाके कारण अङ्ग-अङ्गमें मनोहरण भीतर किसी महान् आनन्दसे परितृप्त जान पड़ती हो। शोभा धारण करनेवाली इस दिव्यरूपा वालिकाके तुम्हारा यह प्रसन्न, मधुर एवं शान्त मुखमण्डल तुम्हारे साथ देखूगा।' अन्तःकरणमें किसी परम आश्चर्यमय आनन्दके उद्रेककी नारदजी जब इस प्रकार कीर्तन कर रहे थे, उसी सूचना दे रहा है। सृष्टि, स्थिति और संहार-तुम्हारे ही समय वह बालिका क्षणभरमें अत्यन्त मनोहर दिव्यरूप स्वरूप हैं, तुम्हीं इनका अधिष्ठान हो। तुम्हीं विशुद्ध धारण करके पुनः उनके सामने प्रकट हुई। वह रूप सत्त्वमयी हो तथा तुम्हीं पराविद्यारूपिणी उत्तम शक्ति हो। चौदह वर्षकी अवस्थाके अनुरूप और सौन्दर्यको चरम तुम्हारा वैभव आश्चर्यमय है। ब्रा और रुद्र आदिके सीमाको पहुँचा हुआ था। तत्काल ही उसीके समान लिये भी तुम्हारे तत्त्वका बोध होना कठिन है। बड़े-बड़े अवस्थावाली दूसरी व्रज-बालाएँ भी दिव्य वस्त्र, योगीश्वरोंके ध्यानमें भी तुम कभी नहीं आतीं। तुम्हीं आभूषण और मालाओसे सुसज्जित हो वहाँ आ पहुँचौं सबकी अधीश्वरी हो। इच्छा-शक्ति, ज्ञानशक्ति और तथा भानुकुमारीको सब ओरसे घेरकर खड़ी हो गयीं। क्रिया-शक्ति-ये सब तुम्हारे अंशमात्र हैं। ऐसी ही मुनीश्वर नारदजीकी स्तवन-शक्तिने जवाब दे दिया। वे
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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