SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 497
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पातालखण्ड ] ****** • हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय और वीरमणिका आत्मसमर्पण • ********............................................................................................. अत्यन्त भयङ्कर शिव धनुष उठाकर मेरे प्राण लेनेपर उतारू हो गये हैं; आप युद्धमें मेरी रक्षा कीजिये। राम! आपका नाम लेकर अनेकों दुःखी जीव दुःख सागरके पार हो चुके हैं। कृपानिधे! मुझ दुःखियाको भी उबारिये।' शत्रुघ्रने ज्यों ही उपर्युक्त बात मुँहसे निकाली त्यों ही नील कमल दलके समान श्यामसुन्दर कमल नयन भगवान् श्रीराम मृगका शृङ्ग हाथमें लिये यज्ञदीक्षित पुरुषके वेषमें वहाँ आ पहुँचे। समरभूमिमें उन्हें देखकर शत्रुनको बड़ा विस्मय हुआ। . ४९७ प्रणतजनोंका क्लेश दूर करनेवाले अपने भाई श्रीरामचन्द्रजीका दर्शन पाकर शत्रुघ्र सभी दुःखोंसे मुक्त हो गये। हनुमानजी भी श्रीरघुनाथजीको देखकर सहसा उनके चरणों में गिर पड़े। उस समय उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई और वे भक्तकी रक्षाके लिये आये हुए भगवान् से बोले- 'स्वामिन्! अपने भक्तोंका सब प्रकारसे पालन करना आपके लिये सर्वथा योग्य ही है। हम धन्य हैं, जो इस समय श्रीचरणोंका दर्शन पा रहे हैं। श्रीरघुनन्दन ! अब आपकी कृपासे हमलोग क्षणभरमें ही शत्रुओंपर विजय पा जायँगे।' इसी समय योगियोंके ध्यानगोचर श्रीरामचन्द्रजीको आया जान श्रीमहादेवजी भी आगे बढ़े और उनके चरणोंमें प्रणाम करके शरणागतभयहारी प्रभुसे बोले - "भगवन् ! एकमात्र आप ही साक्षात् अन्तर्यामी पुरुष हैं, आप ही प्रकृतिसे पर परब्रह्म कहलाते हैं। जो अपनी अंश- कलासे इस विश्वकी सृष्टि, रक्षा और संहार करते हैं, वे परमात्मा आप ही हैं। आप सृष्टिके समय विधाता, पालनके समय स्वयंप्रकाश राम और प्रलयके समय शर्व नामसे प्रसिद्ध साक्षात् मेरे स्वरूप हैं। मैंने अपने भक्तका उपकार करनेके लिये आपके कार्यमें बाधा डालनेवाला आयोजन किया है। कृपालो ! मेरे इस अपराधको क्षमा कीजिये क्या करूँ, मैंने अपने सत्यकी रक्षाके लिये ही यह सब कुछ किया है। आपके प्रभावको जानकर भी भक्तकी रक्षाके लिये यहाँ आया हूँ। पूर्वकालकी बात है, इस राजाने क्षिप्रा नदीमें स्नान करके उज्जयिनीके महाकाल मन्दिरमें बड़ी अद्भुत तपस्या की थी। इससे प्रसन्न होकर मैंने कहा- 'महाराज ! वर माँगो' इसने अद्भुत राज्य माँगा।' मैंने कहा- 'देवपुरमें तुम्हारा राज्य होगा और जबतक वहाँ श्रीरामचन्द्रजीके यज्ञ सम्बन्धी अश्वका आगमन होगा, तबतक मैं भी तुम्हारी रक्षाके लिये उस स्थानपर निवास करूँगा।' इस प्रकार मैंने इसे वरदान दे दिया था। उसी सत्यसे मैं इस समय बँधा हूँ। अब यह राजा अपने पुत्र, पशु और बान्धवोंसहित यज्ञका घोड़ा आपको समर्पित करके आपके ही चरणोंकी सेवा करेगा।" श्रीरामने कहा- भगवन्! देवताओंका तो यह धर्म ही है कि वे अपने भक्तोंका पालन करें। आपने जो इस समय अपने भक्तकी रक्षा की है, यह आपके द्वारा बहुत उत्तम कार्य हुआ है। मेरे हृदयमें शिव हैं और शिवके हृदयमें मैं हूँ। हम दोनोंमें भेद नहीं है। जो मूर्ख हैं, जिनकी बुद्धि दूषित है; वे ही भेददृष्टि रखते हैं। हम दोनों एकरूप हैं। जो हमलोगों में भेद-बुद्धि करते हैं, वे मनुष्य हजार कल्पोंतक कुम्भीपाकमें पकाये जाते हैं। महादेवजी ! जो सदा आपके भक्त रहे हैं, वे धर्मात्मा पुरुष मेरे भी भक्त हैं तथा जो मेरे भक्त हैं, वे भी बड़ी 1
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy