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________________ पातालखण्ड] • हनुमानजीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय और वीरमणिका आत्मसमर्पण . ४९५ लेकर उसे उनके रथपर दे मारा। शिलाका आघात इससे मुझे बड़ा सन्तोष हुआ है। महान् वेगशाली वीर ! पाकर महादेवजीका रथ घोड़े, सारथि, ध्वजा और मैं दान, यज्ञ या थोड़ी-सी तपस्यासे सुलभ नहीं हूँ; अतः पताकासहित चूर-चूर हो गया। शिवजीको रथहीन मुझसे कोई वर माँगो।' देखकर नन्दी दौड़े हुए आये और बोले-'भगवन् ! भगवान् शिव सन्तुष्ट होकर जब ऐसी बात कहने मेरी पीठपर सवार हो जाइये।' भूतनाथको वृषभपर लगे, तब हनुमानजीने हंसकर निर्भय वाणीमें कहाआरूढ़ देख हनुमान्जीका क्रोध और भी बढ़ गया। 'महेश्वर ! श्रीरघुनाथजीके प्रसादसे मुझे सब कुछ प्राप्त उन्होंने शालका वृक्ष उखाड़कर बड़े वेगसे उनकी है; तथापि आप मेरे युद्धसे सन्तुष्ट हैं, इसलिये मैं आपसे छातीपर प्रहार किया। उसकी चोट खाकर भगवान् यह वर माँगता हूँ। हमारे पक्षके ये वीर पुष्कल युद्धमें भूतनाथने एक तीखा शूल हाथमे लिया, जिसकी तीन मारे जाकर पृथ्वीपर पड़े हैं, श्रीरामचन्द्रजीके छोटे भाई शिखाएँ थीं तथा जो अग्रिकी ज्वालाकी भांति शत्रुघ्न भी रणमें मूर्च्छित हो गये हैं तथा दूसरे भी जाज्वल्यमान हो रहा था। अग्नितुल्य तेजस्वी उस महान् बहुत-से वीर बाणोंकी मारसे क्षत-विक्षत एवं मूर्च्छित शूलको अपनी ओर आते देख हनुमान्जीने वेगपूर्वक होकर धरतीपर गिरे हुए हैं। इन सबकी आप अपने हाथसे पकड़ लिया और उसे क्षणभरमें तिल-तिल करके गणोंके साथ रहकर रक्षा करें। इनके शरीरका खण्डतोड़ डाला। कपिश्रेष्ठ हनुमान्ने जब वेगके साथ खण्ड न हो, इस बातकी चेष्टा करें। मैं अभी द्रोणगिरिको त्रिशूलके टुकड़े-टुकड़े कर डाले, तब भगवान् शिवने लाने जा रहा हूँ, उसपर मरे हुए प्राणियोंको जिलानेवाली तुरंत ही शक्ति हाथमें ली, जो सब-की-सब लोहेकी बनी ओषधियाँ रहती है।' यह सुनकर शङ्करजीने कहाहुई थी। शिवजीकी चलायी हुई वह शक्ति बुद्धिमान् 'बहुत अच्छा, जाओ।' उनकी स्वीकृति पाकर हनुमानजी हनुमान्जीकी छातीमें आ लगी। इससे वे कपिश्रेष्ठ सम्पूर्ण द्वीपोंको लांघते हुए क्षीरसागरके तटपर गये। क्षणभर बड़े विकल रहे। फिर एक ही क्षणमें उस इधर भगवान् शिव अपने गणोंके साथ रहकर पुष्कल पीडाको सहकर उन्होंने एक भयङ्कर वृक्ष उखाड़ लिया आदिकी रक्षा करने लगे। हनुमानजी द्रोण नामक महान् और बड़े-बड़े नागोंसे विभूषित महादेवजीको छातीमें पर्वतपर पहुँचकर जब उसे लानेको उद्यत हुए, तब वह प्रहार किया। वीरवर हनुमान्जीकी मार खाकर शिवजीके काँपने लगा। उस पर्वतको काँपते देख उसकी रक्षा शरीरमें लिपटे हुए नाग थर्रा उठे और वे उन्हें छोड़कर करनेवाले देवताओंने कहा–'छोड़ दो इसे, किसलिये इधर-उधर होते हुए बड़े वेगसे पातालमें घुस गये। यहाँ आये हो? क्यों इसे ले जाना चाहते हो?' उनकी इसके बाद शिवजीने उनके ऊपर मुशल चलाया, किन्तु बात सुनकर महायशस्वी हनुमानजी बोले-'देवताओ! वे उसका वार बचा गये। उस समय रामसेवक राजा वीरमणिके नगरमें जो संग्राम हो रहा है, उसमें हनुमान्जीको बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने हाथपर पर्वत रुद्रके द्वारा हमारे पक्षके बहुत-से योद्धा मारे गये है। लेकर उसे शिवजीकी छातीपर दे मारा । तदनन्तर, उनके उन्हींको जीवित करनेके लिये मैं यह द्रोण पर्वत ले ऊपर दूसरी-दूसरी शिलाओं, वृक्षों और पर्वतोंकी वृष्टि जाऊँगा। जो लोग अपने बल और पराक्रमके घमंडमें आरम्भ कर दी। वे भगवान् भूतनाथको अपनी पूँछमें आकर इसे रोकेंगे, उन्हें एक ही क्षणमें मैं यमराजके घर लपेटकर मारने लगे। इससे नन्दीको बड़ा भय हुआ। भेज दूंगा। अतः तुमलोग मुझे समूचा द्रोण पर्वत अथवा उन्होंने एक-एक क्षणमें प्रहार करके शिवजीको अत्यन्त वह औषध दे दो, जिससे मैं रणभूमिमें मरे हुए वीरोंको ध्याकुल कर दिया। तब वे वानरराज हनुमान्जीसे जीवन-दान कर सकूँ।' पवनकुमारके ये वचन सुनकर बोले-'रघुनाथजीकी सेवामें रहनेवाले भक्तप्रवर तुम सबने उन्हें प्रणाम किया और संजीवनी नामक ओषधि धन्य हो। आज तुमने महान् पराक्रम कर दिखाया। उन्हें दे दी। हनुमानजी औषध लेकर युद्धक्षेत्रमें आये।
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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