SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 482
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४८२ • अर्चयस्व हयीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पद्यपुराण किया। इसके बाद श्रीरामचन्द्रजी बारह वर्षातक सीताके वे लङ्कापुरीके भीतर सीताकी खोज करते रहे। रात्रिके साथ रहे । सत्ताईसवें वर्षकी उनमें उन्हें युवराज बनानेकी अन्तिम भागमें हनुमान्जीको सीताका दर्शन हुआ। तैयारी हुई। इसी बीचमें रानी कैकेयीने राजा दशरथसे दो द्वादशीके दिन वे शिशपा नामक वृक्षपर बैठे रहे। उसी वर मांगे। उनमेंसे एकके द्वारा उन्होंने यह इच्छा प्रकट दिन रातमें जानकीजीको विश्वास दिलानेके लिये उन्होंने की कि 'श्रीराम मस्तकपर जटा धारण करके चौदह श्रीरामचन्द्रजीकी कथा सुनायी। फिर त्रयोदशीको अक्ष वर्षोंतक वनमें रहें।' तथा दूसरे वरके द्वारा यह माँगा कि आदिके साथ उनका युद्ध हुआ। चतुर्दशीके दिन 'मेरे पुत्र भरत युवराज बनाये जायें', राजा दशरथने इन्द्रजित्ने आकर ब्रह्मास्त्रसे उन्हें बाँध लिया। इसके श्रीरामको वनवास दे दिया। श्रीरामचन्द्रजी तीन रात्रितक बाद उनकी पूँछमें आग लगा दी गयी और उसी आगके केवल जल पीकर रहे, चौथे दिन उन्होंने फलाहार किया द्वारा उन्होंने लङ्कापुरीको जला डाला। पूर्णिमाको वे पुनः और पाँचवें दिन चित्रकूटपर पहुँचकर अपने लिये महेन्द्र पर्वतपर आ गये। फिर मार्गशीर्ष कृष्णपक्षको रहनेका स्थान बनाया। [इस प्रकार वहाँ बारह वर्ष बीत प्रतिपदासे लेकर पाँच दिन उन्होंने मार्गमें बिताये। छठे गये।] तदनन्तर तेरहवें वर्षके आरम्भमें वे पञ्चवटीमें दिन मधुवनमें पहुँचकर उसका विध्वंस किया और जाकर रहने लगे। महामुने ! वहाँ श्रीरामने [लक्ष्मणके सप्तमीको श्रीरामचन्द्रजीके पास पहुंचकर सीताजीका द्वारा] शूर्पणखा नामकी राक्षसीको [उसकी नाक दिया हुआ चिह्न उन्हें अर्पण किया तथा वहाँका सारा कटाकर] कुरूप बना दिया। तत्पश्चात् वे जानकीके समाचार कह सुनाया। तत्पश्चात् अष्टमीको उत्तरासाथ वनमें विचरण करने लगे। इसी बीचमें अपने फाल्गुनी नक्षत्र और विजय नामक मुहूर्तमें दोपहरके पापोंका फल उदय होनेपर दस मस्तकोंवाला राक्षसराज समय श्रीरघुनाथजीका लङ्काके लिये प्रस्थान हुआ। रावण सीताको हर ले जानेके लिये वहाँ आया और माघ श्रीरामचन्द्रजी यह प्रतिज्ञा करके कि 'मैं समुद्रको कृष्णा अष्टमीको वृन्द नामक मुहूर्तमें, जब कि श्रीराम लाँधकर राक्षसराज रावणका वध करूँगा', दक्षिण और लक्ष्मण आश्रमपर नहीं थे, उन्हें हर ले गया। दिशाको ओर चले। उस समय सुग्रीव उनके सहायक उसके द्वारा अपहरण होनेपर देवी सीता कुररीकी भाँति हुए। सात दिनोंके बाद समुद्रके तटपर पहुंचकर उन्होंने विलाप करने लगीं-'हा राम ! हा राम ! मुझे राक्षस सेनाको ठहराया। पौष-शुक्ला प्रतिपदासे लेकर हरकर लिये जा रहा है, मेरी रक्षा करो, रक्षा करो।' तृतीयातक श्रीरघुनाथजी सेनासहित समुद्र-तटपर टिके रावण कामके अधीन होकर जनककिशोरी सीताको लिये रहे। चतुर्थीको विभीषण आकर उनसे मिले। फिर जा रहा था। इतनेहीमें पक्षिराज जटायु वहाँ आ पहुँचे। पशमीको समुद्र पार करनेके विषयमें विचार हुआ। उन्होंने राक्षसराज रावणके साथ युद्ध किया, किन्तु स्वयं इसके बाद श्रीरामने चार दिनोंतक अनशन किया। फिर ही उसके हाथसे मारे जाकर धरतीपर गिर पड़े। इसके समुद्रसे वर मिला और उसने पार जानेका उपाय भी बाद दसवें महीनेमें अगहन' शुक्ला नवमीके दिन दिखा दिया। तदनन्तर दशमीको सेतु बाँधनेका कार्य सम्पातिने वानरोंको इस बातकी सूचना दी कि 'सीता आरम्भ होकर त्रयोदशीको समाप्त हुआ। चतुर्दशीको देवी रावणके भवनमें निवास कर रही हैं। श्रीरामने सुवेल पर्वतपर अपनी सेनाको ठहराया। फिर एकादशीको हनुमानजी महेन्द्र पर्वतसे पूर्णिमासे द्वितीयातक तीन दिनोंमें सारी सेना समुद्रके पार उछलकर सौ योजन चौड़ा समुद्र लाँघ गये। उस रातमें हुई। समुद्र पार करके लक्ष्मणसहित श्रीरामने वानरराजकी १-यह गणना शुक्लपक्षसे महीनेका आरम्भ मानकर की गयी है; अतः यहाँ अगहन शुकाका अर्थ यहाँकी प्रचलित गणनाके अनुसार कार्तिक शुरूपक्ष समझना चाहिये । तथा इसी प्रकार आगे बतायी जानेवाली अन्य तिथियोंको भी जानना चाहिये।
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy