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________________ ४७८ अर्चयस्व हृषीकेश यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पापुराण ऊँचा दिखायी देता था, मानो अमरावतीपुरीका एक भाग शान्त कर दिया। निशाचरोके छोड़े हुए सभी बाण ही टूटकर भूतलके एक स्थानमें पड़ा हो। तब उस विलीन हो गये। तब विद्युन्मालीने क्रोधमें भरकर दैत्यको बड़ा क्रोध हुआ और उसने अपने धनुषपर शत्रुघ्नको मारनेके लिये एक तीक्ष्ण एवं भयङ्कर त्रिशूल अनेकों बाणोंका सन्धान किया तथा राम-भ्राता शत्रुघ्नको हाथमें लिया। उसे शूल हाथमे लिये आते देख शत्रुघ्नने उन बाणोंका निशाना बनाकर बड़ी विकट गर्जना की। अर्धचन्द्राकार बाणसे उसकी भुजा काट डाली। फिर शत्रुघ्न बड़े शक्तिशाली थे, उन्होंने अपने धनुषपर कुण्डलोंसहित उसके मस्तकको भी धड़से अलग कर वायव्यास्त्रका प्रयोग किया, जो राक्षसोंको कंपा देनेवाला दिया। भाईका मस्तक कट गया, यह देखकर प्रतापी था। उस अखकी मार खाकर व्योमचारी भूत-बेताल उग्रदंष्ट्रने शूरवीरोंद्वारा सेवित शत्रुघ्रको मुक्केसे मारना मस्तकके बाल छितराये आकाशसे पृथ्वीपर गिरते आरम्भ किया। किन्तु शत्रुघ्नने क्षुरप नामक सायकसे दिखायी देने लगे। राम-भ्राता शत्रुघ्नके उस अस्त्रको उसका भी मस्तक उड़ा दिया। तदनन्तर मरनेसे बचे हुए देखकर राक्षस-कुमारने अपने धनुषपर पाशुपतास्त्रका सभी राक्षस अनाथ हो गये; इसलिये उन्होंने शत्रुनके प्रयोग किया। समस्त वीरोंका विनाश करनेवाले उस चरणोंमें पड़कर वह यज्ञका घोड़ा उन्हें अर्पण कर दिया। अखको चारों ओर फैलते देखकर उसका निवारण फिर तो विजयके उपलक्ष्यमें वीणा झंकृत होने लगी। करनेके लिये शत्रुघ्नने नारायण नामक अस्त्र छोड़ा। सब ओर शङ्ख बज उठे तथा शूरवीरोंका मनोहर नारायणास्त्रने एक ही क्षणमें शत्रुपक्षके सभी अस्त्रोको विजयनाद सुनायी देने लगा। शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्म-कथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना शेषजी कहते हैं-राक्षसोंद्वारा अपहरण किये हुए बताओ, यह पवित्र आश्रम किसका है?' घोड़ेको पाकर पुष्कलसहित राजा शत्रुघ्नको बड़ा हर्ष सुमतिने कहा-महाराज ! यहाँ एक श्रेष्ठ मुनि हुआ। दुर्जय दैत्य विद्युन्मालीके मारे जानेपर समस्त रहते हैं, जो सम्पूर्ण शास्त्रोंके विद्वान् है; इनका दर्शन देवता निर्भय हो गये। उन्हें बड़ा सुख मिला। तदनन्तर करके हमलोगोंके समस्त पाप धुल जायेंगे। इसलिये तुम शत्रुघ्नने उस उत्तम अश्वको छोड़ा। फिर तो वह इन्हें प्रणाम करके इन्हींसे पूछो। ये तुम्हें सब कुछ बता उत्तर-दिशामें भ्रमण करने लगा। सब प्रकारके देंगे। इनका नाम आरण्यक है, ये श्रीरघुनाथजीके अस्त्र-शस्त्रोंमें प्रवीण श्रेष्ठ रथी, घुड़सवार और पैदल चरणोंके सेवक हैं तथा उनके चरणकमलोंके मकरन्दका सिपाही उसकी रक्षामें नियुक्त थे। घूमता-घामता वह आस्वादन करनेके लिये सदा लोलुप बने रहते हैं। इन्होंने नर्मदाके तटपर जा पहुंचा, जहाँ बहुत-से ऋषि-महर्षि बड़ी उग्र तपस्या की है और ये समस्त शास्त्रोंके मर्मज्ञ है। निवास करते हैं। नर्मदाका जल ऐसा जान पड़ता था, सुमतिका यह धर्मयुक्त वचन सुनकर शत्रुघ्नजी मानो पानीके व्याजसे नील-रत्नोंका रस ही दिखायी दे थोड़े-से सेवकोंको साथ ले मुनिका दर्शन करनेके लिये रहा हो । वहाँ तटपर उन्होंने एक पुरानी पर्णशाला देखी, गये। पास जा उन सभी वीरोंने विनीतभावसे मस्तक जो पलाशके पत्तोंसे बनी हुई थी और नर्मदाकी लहरें उसे झुकाकर तापसोंमें श्रेष्ठ आरण्यक मुनिको नमस्कार अपने जलसे सींच रही थीं । शत्रुघ्नजी सम्पूर्ण धर्म, अर्थ, किया। मुनिने उन सब लोगोंसे पूछा-'आपलोग कहाँ कर्म और कर्तव्यके ज्ञानमें निपुण थे; उन्होंने सर्वज्ञ एवं एकत्रित हुए हैं तथा कैसे यहाँ पधारे है ? ये सब नीतिकुशल मन्त्री सुमतिसे पूछा-'मन्त्रिवर ! बातें स्पष्टरूपसे बताइये।'
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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