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________________ पातालखण्ड] • तेजःपुरके राजा सत्यवान्की जन्मकथा-सत्यवान्का शत्रुघ्नको सर्वस्व-समर्पण • ४७३ भूखसे पीड़ित हो घरपर आये हुए अतिथिका वचनद्वारा पर दया करनेवाले थे; उन्होंने नरकसे निकले हुए भी स्वागत-सत्कार नहीं किया है; अतः इसे अन्धकारसे प्राणियोंका सूर्यके समान तेजस्वी रूप देखकर मन-हीभरे हुए तामिस नामक नरकमें गिराना उचित है। वहाँ मन बड़े सन्तोषका अनुभव किया। वे सभी प्राणी भ्रमरोंसे पीड़ित होकर यह सौ वर्षोंतक यातना भोगे। यह दयासागर महाराज जनककी प्रशंसा करते हुए दिव्य पापी उच्च स्वरसे दूसरोंकी निन्दा करते हुए कभी लज्जित लोकको चले गयोनरकस्थ प्राणियोंके चले जानेपर राजा नहीं हुआ है तथा उसने भी कान लगा-लगाकर अनेकों जनकने सम्पूर्ण धर्मज्ञोंमें श्रेष्ठ यमराजसे प्रश्न किया। बार दूसरोंकी निन्दा सुनी है; अतः ये दोनों पापी राजाने कहा-धर्मराज ! आपने कहा था कि अन्धकूपमें पड़कर दुःख-पर-दुःख उठा रहे हैं। यह जो पाप करनेवाले मनुष्य ही आपके स्थानपर आते हैं, अत्यन्त उद्विग्न दिखायी दे रहा है, मित्रोंसे द्रोह करनेवाला धार्मिक चर्चामें लगे रहनेवाले जीवोंका यहाँ आगमन है, इसीलिये इसे रौरव नरकमें पकाया जाता है। नहीं होता। ऐसी दशामें मेरा यहाँ किस पापके कारण नरश्रेष्ठ ! इन सभी पापियोंको इनके पापोंका भोग आना हुआ है? आप धर्मात्मा हैं; इसलिये मेरे पापका कराकर छुटकारा दूंगा। अतः तुम उत्तम लोकोमें जाओ; समस्त कारण आरम्भसे ही बतायें। क्योंकि तुमने पुण्य-राशिका उपार्जन किया है। धर्मराज बोले-राजन् ! तुम्हारा पुण्य बहुत बड़ा "जनकने पूछा-धर्मराज ! इन दुःखी जीवोंका है। इस पृथ्वीपर तुम्हारे समान पुण्य किसीका नहीं है। नरकसे उद्धार कैसे होगा? आप वह उपाय बतायें, तुम श्रीरघुनाथजीके युगलचरणारविन्दोंका मकरन्द पान जिसका अनुष्ठान करनेसे इन्हें सुख मिले। करनेवाले भ्रमर हो। तुम्हारी कीर्तिमयी गङ्गा मलसे भरे "धर्मराज बोले-महाराज! इन्होंने कभी हुए समस्त पापियोंको पवित्र कर देती है। वह अत्यन्त भगवान् विष्णुकी आराधना नहीं की, उनकी कथा नहीं आनन्द प्रदान करनेवाली और दुष्टोंको तारनेवाली है। सुनी, फिर इन पापियोंको नरकसे छुटकारा कैसे मिल तथापि तुम्हारा एक छोटा-सा पाप भी है, जिसके कारण सकता है ! इन्होंने बड़े-बड़े पाप किये हैं तो भी यदि तुम तुम पुण्यसे भरे होनेपर भी संयमनीपुरीके पास आये हो। इन्हें छुड़ाना चाहते हो तो अपना पुण्य अर्पण करो। एक समयकी बात है-एक गाय कहीं चर रही थी, कौन-सा पुण्य ? सो मैं बतलाता हूँ। एक दिन प्रातः- तुमने पहुंचकर उसके चरनेमें रुकावट डाल दी। उसी काल उठकर तुमने शुद्ध चित्तसे श्रीरघुनाथजीका ध्यान पापका यह फल है कि तुम्हें नरकका दरवाजा देखना किया था, जिनका नाम महान् पापोंका भी नाश करनेवाला पड़ा है। इस समय तुम उससे छुटकारा पा गये तथा है। नरश्रेष्ठ ! उस दिन तुमने जो अकस्मात् 'राम-राम' का तुम्हारा पुण्य पहलेसे बहुत बढ़ गया; अतः अपने उच्चारण किया था, उसीका पुण्य इन पापियोंको दे डालो; पुण्यद्वारा उपार्जित नाना प्रकारके उत्तम भोगोंका उपभोग जिससे इनका नरकसे उद्धार हो जाय।" करो। श्रीरघुनाथजी करुणाके सागर हैं। उन्होंने इन दुःखी जाबालि कहते हैं-महाराज! बुद्धिमान् जीवोंका दुःख दूर करनेके लिये ही संयमनीके इस धर्मराजके उपर्युक्त वचन सुनकर राजा जनकने अपने महामार्गमें तुम-जैसे वैष्णवको भेज दिया है। सुव्रत ! जीवनभरका कमाया हुआ पुण्य उन पापियोंको दे डाला। यदि तुम इस मार्गसे नहीं आते तो इन बेचारोंका नरकसे उनके सङ्कल्प करते ही नरकमें पड़े हुए जीव तत्क्षण उद्धार कैसे होता ! महामते ! दूसरोंके दुःखसे दुःखी वहाँसे मुक्त हो गये और दिव्य शरीर धारण करके होनेवाले तुम्हारे-जैसे दया-धाम महात्मा आर्त प्राणियोंका जनकसे बोले-'राजन् ! आपकी कृपासे हमलोग एक दुःख दूर करते ही हैं। ही क्षणमें इस दुःखदायी नरकसे छुटकारा पा गये, अब जाबालि कहते हैं-ऐसा कहते हुए यमराजको हम परमधामको जा रहे हैं। राजा जनक सम्पूर्ण प्राणियों- प्रणाम करके राजा जनक परमधामको चले गये।
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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