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________________ .अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . कान्ति करोड़ों सूर्योके समान थी। वे अपनी चार पराजय न हो। जिस समय महायशस्वी श्रीरघुनाथजी भुजाओंमें धनुष, बाण, अङ्कश और पाश धारण किये रावणको मारकर सब सामग्रियोंसे सुशोभित अश्वमेध हुए थीं। माताका दर्शन पाकर बुद्धिमान् राजाको बड़ी यज्ञका अनुष्ठान करेंगे, उस समय शत्रुओंका दमन प्रसन्नता हुई। उन्होंने बारम्बार मस्तक झुकाकर करनेवाले उनके महावीर प्राता शत्रुघ्न वीर आदिसे भक्तिभावनासे प्रकट हुई माता दुर्गाको प्रणाम किया। वे घिरकर घोड़ेकी रक्षा करते हुए यहाँ आयेंगे। तुम उन्हें बारम्बार राजाके शरीरपर अपने कोमल हाथ फेरती हुई अपना राज्य, समृद्धि और धन आदि सब कुछ सौंपकर हँस रही थीं। महामति राजा सुमदके शरीरमें रोमाञ्च हो उनके साथ पृथ्वीपर भ्रमण करोगे तथा अन्तमें ब्रह्मा, आया। उनके अन्तःकरणकी वृत्ति भक्ति-भावसे इन्द्र और शिव आदिसे सेवित भगवान् श्रीरामको प्रणाम उत्कण्ठित हो गयी और वे गद्गद स्वरसे माताकी इस करके ऐसी मुक्ति प्राप्त करोगे, जो यम-नियमोंका साधन प्रकार स्तुति करने लगे-'देवि ! आपकी जय हो। करनेवाले योगियोंके लिये भी दुर्लभ है। " महादेवि ! भक्त-जन सदा आपकी ही सेवा करते हैं। ऐसा कहकर देवता और असुरोंसे अभिवन्दित ब्रह्मा और इन्द्र आदि समस्त देवता आपके युगल- कामाक्षा देवी वहाँसे अन्तर्धान हो गयीं तथा सुमद चरणोकी आराधनामें लगे रहते हैं। आप पापके स्पर्शसे भी अपने शत्रुओंको मारकर अहिच्छत्रा नगरीके राजा रहित हैं। आपहीके प्रतापसे अग्निदेव प्राणियोंके भीतर हुए। वही ये इस नगरीके स्वामी राजा सुमद हैं। यद्यपि और बाहर स्थित होकर सारे जगत्का कल्याण करते हैं। ये सब प्रकारसे समर्थ तथा बल और वाहनोंसे सम्पन्न महादेवि ! देवता और असुर-सभी आपके चरणोंमें हैं तथापि तुम्हारे यज्ञ-सम्बन्धी घोड़ेको नहीं पकड़ेंगे; नतमस्तक होते हैं। आप ही विद्या तथा आप ही भगवान् क्योंकि महामायाने इस बातके लिये इनको भलीभांति विष्णुकी महामाया है। एकमात्र आप ही इस जगत्को शिक्षा दी है। पवित्र करनेवाली हैं। आप ही अपनी शक्तिसे इस शेषजी कहते हैं-सुमतिके मुखसे राजा सुमदका संसारकी सृष्टि और पालन करती हैं। जगत्के जीवोंको यह वृत्तान्त सुनकर महान् यशस्वी, बुद्धिमान् और मोहमें डालनेवाली भी आप ही हैं। सब देवता आपहीसे बलवान् शत्रुनजी बड़े प्रसन्न हुए तथा 'साधु-साधु' सिद्धि पाकर सुखी होते हैं। मातः ! आप दयाकी कहकर उन्होंने अपना हर्ष प्रकट किया। उधर स्वामिनी, सबकी वन्दनीया तथा भक्तोंपर स्नेह रखनेवाली अहिच्छत्राके स्वामी अपने सेवकगणोंसे घिरकर सेवक हूँ। मेरी रक्षा कीजिये। तथा धन-धान्यसे सम्पन्न वैश्य भी उनके पास बैठे थे; सुमतिने कहा-इस प्रकार की हुई स्तुतिसे इससे उनकी बड़ी शोभा हो रही थी। इसी समय किसीने सन्तुष्ट होकर जगन्माता कामाक्षा अपने भक्त सुमदसे, आकर राजासे कहा-'स्वामिन् ! न जाने किसका घोड़ा बोलीं-'बेटा ! कोई उत्तम वर मांगो।' माताका यह है।' यह सुनकर राजाने तुरंत ही एक अच्छे सेवकको वचन सुनकर राजा सुमदको बड़ा हर्ष हुआ और उन्होंने भेजा और कहा-'जाकर पता लगाओ, किस राजाका अपना खोया हुआ अकण्टक राज्य, जगन्माता भवानीके घोड़ा मेरे नगरके निकट आया है।' सेवकने जाकर सब चरणोंमें अविचल भक्ति तथा अन्तमें संसारसागरसे पार बातका पता लगाया और महान् क्षत्रियोंसे सेवित राजा उतारनेवाली मुक्तिका वरदान माँगा। सुमदके पास आ आरम्भसे ही सारा वृत्तान्त कह कामाक्षाने कहा-सुमद ! तुम सर्वत्र अकण्टक सुनाया। श्रीरघुनाथजीका घोड़ा है' यह सुनकर बुद्धिमान् राज्य प्राप्त करो और शत्रुओंके द्वारा तुम्हारी कभी राजाको चिरकालकी पुरानी बातका स्मरण हो आया
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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