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________________ 416 अर्चवस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पद्मपुराण करके सम्पूर्ण जगत्को मर्यादाका पाठ पढ़नेवाले उत्कण्ठासे विह्वल हो रहा था; उन्होंने अपने रामको श्रीरघुनाथजीने माताके भवनमें जानेका विचार किया। वे बारंबार छातीसे लगाया और बहुत प्रसन्न हुई। उनके राजाओंके राजा तथा अच्छी नीतिका पालन करनेवाले BIDO थे; अतः पालकीपर बैठे हुए ही सबसे पहले अपनी माता कैकेयीके घरमें गये। कैकेयी लज्जाके भारसे दबी हुई थी, अतः श्रीरामचन्द्रजीको सामने देखकर भी वह कुछ न बोली। बारंबार गहरी चिन्तामें डूबने लगी। सूर्य-वंशकी पताका फहरानेवाले श्रीरामने माताको लज्जित देखकर उसे विनययुक्त वचनोंद्वारा सान्त्वना देते श्रीराम बोले-माँ! मैंने वनमें जाकर तुम्हारी आज्ञाका पूर्णरूपसे पालन किया है। अब बताओ, तुम्हारी आज्ञासे इस समय कौन-सा कार्य करूं? श्रीरामकी यह बात सुनकर भी कैकेयी अपने मुँहको ऊपर न उठा सकी, वह धीरे-धीरे बोली-'बेटा राम ! तुम निष्पाप हो। अब तुम अपने महलमें जाओ।' माताका यह वचन सुनकर कृपा-निधान श्रीरामचन्द्रजीने भी उन्हें नमस्कार किया और वहाँसे सुमित्राके भवनमें Poe गये। सुमित्राका हृदय बड़ा उदार था, उन्होंने अपने पुत्र शरीरमें रोमाञ्च हो आया, वाणी गद्गद हो गयी और लक्ष्मणसहित श्रीरामचन्द्रजीको उपस्थित देख आशीर्वाद नेत्रोंसे आनन्दके आँसू प्रवाहित होकर चरणोंको भिगोने देते हुए कहा-'बेटा ! तुम चिरजीवी हो।' लगे। विनयशील श्रीरघुनाथजीने देखा कि 'माता श्रीरामचन्द्रजीने भी माता सुमित्राके चरणोंमें प्रणाम करके अत्यन्त दुर्बल हो गयी हैं। मुझे देखकर ही इन्हें बारबार प्रसन्नता प्रकट करते हुए कहा-'माँ ! कुछ-कुछ हर्ष हुआ है।' उनकी इस अवस्थापर दृष्टिपात लक्ष्मण-जैसे पुत्ररत्नको जन्म देनेके कारण तुम रत्नगर्भा करके उन्होंने कहा। हो; बुद्धिमान् लक्ष्मणने जिस प्रकार हमारी सेवा की है, श्रीराम बोले-माँ ! मैने बहुत दिनोंतक तुम्हारे जिस तरह इन्होंने मेरे कष्टोंका निवारण किया है वैसा चरणोंकी सेवा नहीं की है, निश्चय ही मैं बड़ा भाग्यहीन कार्य और किसीने कभी नहीं किया। रावणने सीताको हूँ तुम मेरे इस अपराधको क्षमा करना / जो पुत्र अपने हर लिया। उसके बाद मैंने पुनः जो इन्हें प्राप्त किया है, माता-पिताकी सेवाके लिये उत्सुक नहीं रहते, उन्हें वह सब तुम लक्ष्मणका ही पराक्रम समझो।' यों कहकर रज-वीर्यसे उत्पन्न हुआ कीड़ा ही समझना चाहिये। क्या तथा सुमित्राके दिये हुए आशीर्वादको शिरोधार्य करके वे करूँ, पिताजीकी आज्ञासे मैं दण्डकारण्यमें चला गया देवताओंके साथ अपनी माता कौसल्याके महलमें गये। था। वहाँसे रावण सीताको हरकर लङ्कामें ले गया था; माताको अपने दर्शनके लिये उत्कण्ठित तथा हर्षमग्न किन्तु तुम्हारी कृपासे उस राक्षसराजको मारकर मैंने पुनः देख भगवान् श्रीराम तुरंत ही पालकीसे उतर पड़े और इन्हें प्राप्त किया है। ये पतिव्रता सीता भी तुम्हारे चरणोंमें निकट पहुँचकर उन्होंने माताके चरणोंको पकड़ लिया। पड़ी हैं, इनका चित्त सदा तुम्हारे इन चरणोंमें ही लगा माता कौसल्याका हृदय बेटेका मुंह देखनेके लिये रहता है।
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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