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________________ ३८४ • अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पयपुराण . . . . . . . . . . चाहिये। जहाँतक गुरुकी दृष्टि पड़ती हो, वहाँतक कुश-इन वस्तुओंका आवश्यकताके अनुसार संग्रह मनमाने आसनपर न बैठे। गुरुके परोक्षमें भी उनका करे तथा अन्नकी भिक्षा लेनेके लिये प्रतिदिन जाय । घी, नाम न ले। उनकी चाल, उनकी बोली तथा उनकी नमक और बासी अन्न ब्रह्मचारीके लिये वर्जित हैं। वह चेष्टाका अनुकरण न करे । जहाँ गुरुपर लाञ्छन लगाया कभी नृत्य न देखे। सदा सङ्गीत आदिसे निःस्पृह रहे। जाता हो अथवा उनकी निन्दा हो रही हो, वहाँ कान मूंद न सूर्यकी ओर देखे न दाँतन करे। उसके लिये स्त्रियोंके लेने चाहिये अथवा वहाँसे अन्यत्र हट जाना चाहिये। दूर साथ एकान्तमें रहना और शूद्र आदिके साथ वार्तालाप खड़ा होकर, क्रोधमें भरकर अथवा स्त्रीके समीप रहकर करना भी निषिद्ध है। वह गुरुके उच्छिष्ट औषध और गुरुकी पूजा न करे । गुरुकी बातोंका प्रत्युत्तर न दे। यदि अत्रका स्वेच्छासे उपयोग न करे। गुरु पास ही खड़े हों तो स्वयं भी बैठा न रहे। गुरुके . ब्राह्मण गुरुके परित्यागका किसी तरह विचार भी लिये सदा पानीका घड़ा, कुश, फूल और समिधा लाया मनमें न लाये। यदि मोह या लोभवश वह उन्हें त्याग करे। प्रतिदिन उनके आँगनमें झाड़ देकर उसे लीप-पोत दे तो पतित हो जाता है। जिनसे लौकिक, वैदिक तथा दे। गुरुके उपभोगमें आयी हुई वस्तुओंपर, उनकी आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त किया जाता है, उन गुरुदेवसे शव्या, खड़ाऊँ, जूते, आसन तथा छाया आदिपर कभी कभी द्रोह न करे। गुरु यदि घमंडी, कर्तव्यपैर न रखे। गुरुके लिये दाँतन आदि ला दिया करे। जो अकर्तव्यको न जाननेवाला और कुमार्गगामी हो तो कुछ प्राप्त हो, उन्हें निवेदन कर दे। उनसे पूछे बिना कहीं मनुजीने उसका त्याग करनेका आदेश दिया है। गुरुके न जाय और सदा उनके प्रिय एवं हितमें संलग्न रहे। गुरु समीप आ जाये तो उनके प्रति भी गुरुकी ही भांति गुरुके समीप कभी पैर न फैलाये। उनके सामने जंभाई बर्ताव करना चाहिये। नमस्कार करनेके पश्चात् जब वे लेना, हँसना, गला बैंकना और अंगड़ाई लेना सदाके गुरुजी आज्ञा दें, तब आकर अपने गुरुओंको प्रणाम लिये छोड़ दे। समयानुसार गुरुसे, जबतक कि वे करना चाहिये। जो विद्यागुरु हों, उनके प्रति भी यही पढ़ानेसे उदासीन न हो जायँ, अध्ययन करे । गुरुके पास बर्ताव करना चाहिये । जो योगी हों, जो अधर्मसे रोकने नीचे बैठे। एकाग्र चित्तसे उनकी सेवामें लगा रहे । गुरुके और हितका उपदेश करनेवाले हों, उनके प्रति भी सदा आसन, शय्या और सवारीपर कभी न बैठे। गुरु यदि गुरुजनोचित बर्ताव करना चाहिये। गुरुके पुत्र, गुरुकी दौड़ते हों तो उनके पीछे-पीछे स्वयं भी दौड़े। वे चलते पत्नी तथा गुरुके बन्धु-बन्धवोंके साथ भी सदा अपने हों तो स्वयं भी पीछे-पीछे जाय । बैलगाड़ी, घोड़ागाड़ी, गुरुके समान ही बर्ताव करना उचित है। इससे कल्याण ऊँटगाड़ी, महलकी अटारी, कुशकी चटाई, शिलाखण्ड होता है। बालक अथवा शिष्य यज्ञकर्ममें माननीय तथा नावपर गुरुके साथ शिष्य भी बैठ सकता है। पुरुषोंका आदर करे। यदि गुरुका पुत्र भी पढ़ाये तो शिष्यको सदा जितेन्द्रिय, जितात्मा, क्रोधहीन और गुरुके समान ही सम्मान पानेका अधिकारी है। किन्तु पवित्र रहना चाहिये। वह सदा मधुर और हितकारी गुरुपुत्रके शरीर दबाने, नहलाने, उच्छिष्ट भोजन करने वचन बोले। चन्दन, माला, स्वाद, शृङ्गार, सीपी, तथा चरण धोने आदिका कार्य न करे । गुरुकी स्त्रियोंमें प्राणियोंकी हिंसा, तेल की मालिश, सुरमा, शर्बत आदि जो उनके समान वर्णकी हों, उनका गुरुकी भाँति सम्मान पेय, छत्रधारण, काम, लोभ, भय, निद्रा, गाना-बजाना, करना चाहिये तथा जो समान वर्णकी न हो, उनका दूसरोंको फटकारना, किसीपर लाञ्छन लगाना, खीकी अभ्युत्थान और प्रणाम आदिके द्वारा ही सत्कार करना ओर देखना, उसका स्पर्श करना, दूसरेका घात करना चाहिये। गुरुपत्नीके प्रति तेल लगाने, नहलाने, शरीर तथा चुगली खाना-इन दोषोंका यत्नपूर्वक परित्याग दबाने और केशोंका शृङ्गार करने आदिकी सेवा न करे । करे। जलसे भरा हुआ घड़ा, फूल, गोबर, मिट्टी और यदि गुरुकी स्त्री युवती हो तो उसका चरण-स्पर्श करके
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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