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________________ ३८ ********........................ • अर्थयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् • तपस्याद्वारा पापके सम्पर्कसे रहित भगवान् श्रीनारायणकी आराधना की। इससे सन्तुष्ट होकर श्रीविष्णुने उन्हें वरदान दिया, जिससे रजिने देवता, असुर और मनुष्योंको जीत लिया। 1 अब मैं नहुषके पुत्रोंका परिचय देता हूँ। उनके सात पुत्र हुए और वे सब के सब धर्मात्मा थे। उनके नाम ये हैं- यति, ययाति संयाति, उद्भव, पर, वियति और विद्यसाति । ये सातों अपने वंशका यश बढ़ानेवाले थे। उनमें यति कुमारावस्थामें ही वानप्रस्थ योगी हो गये । ययाति राज्यका पालन करने लगे। उन्होंने एकमात्र धर्मकी ही शरण ले रखी थी। दानवराज वृषपर्वाकी कन्या शर्मिष्ठा तथा शुक्राचार्यकी पुत्री सती देवयानी — ये दोनों उनकी पत्नियाँ थीं । ययातिके पाँच पुत्र थे। देवयानीने यदु और तुर्वसु नामके दो पुत्रोंको जन्म दिया तथा शर्मिष्ठाने द्रुझु, अनु और पूरु नामक तीन पुत्र उत्पन्न किये। उनमें यदु और पूरु—ये दोनों अपने वंशका विस्तार करनेवाले हुए। यदुसे यादवोंकी उत्पत्ति हुई, जिनमें पृथ्वीका भार उतारने और पाण्डवोंका हित करनेके लिये भगवान् बलराम और श्रीकृष्ण प्रकट हुए हैं। यदुके पाँच पुत्र हुए, जो देवकुमारोंके समान थे। उनके नाम थे – सहस्रजित, क्रोष्टु, नील, अञ्जिक और रघु । इनमें सहस्रजित् ज्येष्ठ थे। उनके पुत्र राजा शतजित् हुए। शतजित्के हैहय, हय और उत्तालहय- ये तीन पुत्र हुए, जो बड़े धर्मात्मा थे। हैहयका पुत्र धर्मनेत्रके नामसे विख्यात हुआ । धर्मनेत्रके कुम्भि, कुम्भिके संहत और संहतके महिष्मान् नामक पुत्र हुआ। महिष्मान्से भद्रसेन नामक पुत्रका जन्म हुआ, जो बड़ा प्रतापी था। वह काशीपुरीका राजा था। भद्रसेनके पुत्र राजा दुर्दर्श हुए। दुर्दर्शक पुत्र भीम और भीमके बुद्धिमान् कनक हुए। कनकके कृतानि कृतवीर्य, कृतधर्मा और कृतौजा – ये चार पुत्र हुए, जो संसारमें विख्यात थे। कृतवीर्यका पुत्र अर्जुन हुआ, जो एक हजार भुजाओंसे सुशोभित एवं सातों द्वीपोंका राजा था। राजा कार्तवीर्यने दस हजार वर्षोंतक दुष्कर तपस्या करके भगवान् [ संक्षिप्त पद्मपुराण चार वरदान दिये। राजाओंमें श्रेष्ठ अर्जुनने पहले तो अपने लिये एक हजार भुजाएँ माँगी। दूसरे वरके द्वारा उन्होंने यह प्रार्थना की कि 'मेरे राज्यमें लोगोंको अधर्मकी बात सोचते हुए भी मुझसे भय हो और वे अधर्मके मार्गसे हट जायें।' तीसरा वरदान इस प्रकार था— - 'मैं युद्धमें पृथ्वीको जीतकर धर्मपूर्वक बलका संग्रह करूँ।' चौथे वरके रूपमें उन्होंने यह माँगा कि 'संग्राममें लड़ते-लड़ते मैं अपनी अपेक्षा श्रेष्ठ वीरके हाथसे मारा जाऊँ राजा अर्जुनने सातों द्वीप और नगरोंसे युक्त तथा सातों समुद्रोंसे घिरी हुई इस सारी पृथ्वीको क्षात्रधर्मके अनुसार जीत लिया था। उस बुद्धिमान् नरेशके इच्छा करते ही हजार भुजाएँ प्रकट हो जाती थीं। महाबाहु अर्जुनके सभी यज्ञोंमें पर्याप्त दक्षिणा बाँटी जाती थी। सबमें सुवर्णमय यूप (स्तम्भ) और सोनेकी ही वेदियाँ बनायी जाती थीं। उन यज्ञोंमें सम्पूर्ण देवता सज-धजकर विमानोंपर बैठकर प्रत्यक्ष दर्शन देते थे। महाराज कार्तवीर्यने पचासी हजार वर्षोंतक एकछत्र राज्य किया। वे चक्रवर्ती राजा थे। योगी होनेके कारण अर्जुन समय-समयपर मेघके रूपमें प्रकट हो वृष्टिके द्वारा प्रजाको सुख पहुँचाते थे। प्रत्यञ्चाके आघातसे उनकी भुजाओंकी त्वचा कठोर हो गयी थी। जब वे अपनी हजारों भुजाओंके साथ संग्राममें खड़े होते थे, उस समय सहस्रों किरणोंसे सुशोभित शरत्कालीन सूर्यके समान तेजस्वी जान पड़ते थे। परम कान्तिमान् महाराज अर्जुन माहिष्मतीपुरीमें निवास करते थे और वर्षाकालमें समुद्रका वेग भी रोक देते थे। उनकी हजारों भुजाओंके आलोडनसे समुद्र क्षुब्ध हो उठता था और उस समय पातालवासी महान् असुर लुक-छिपकर निश्चेष्ट हो जाते थे 1 एक समयकी बात है, वे अपने पाँच बाणोंसे अभिमानी रावणको सेनासहित मूर्छित करके माहिष्मतीपुरीमें ले आये। वहाँ ले जाकर उन्होंने रावणको कैदमें डाल दिया। तब मैं ( पुलस्त्य) अर्जुनको प्रसन्न करनेके लिये गया। राजन्! मेरी बात मानकर दत्तात्रेयजीकी आराधना की। पुरुषोत्तम दत्तात्रेयजीने उन्हें उन्होंने मेरे पौत्रको छोड़ दिया और उसके साथ मित्रता
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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