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________________ स्वर्गखण्ड] • भगवान्के भजन एवं नाम-कीर्तनकी महिमा . अविनाशी परमात्मा विष्णु तथा महादेवजीको एक हरिनाममहावनं पापपर्वतदारणम्। भावसे देखें तथा एक समझकर ही उनका पूजन करें। तस्य पादौ तु सफलौ तदर्थगतिशालिनौ ।। २७ ।। येऽसमानं प्रपश्यन्ति हरिं वै देवतान्तरम्। हरिनामरूपी महान् वज्र पापोंके पहाड़को विदीर्ण ते यान्ति नरकान् घोरान्न तांस्तु गणयेद्धरिः ।। २१॥ करनेवाला है। जो भगवान्की ओर आगे बढ़ते हों, जो 'हरि' और 'हर' को समान भावसे नहीं देखते, मनुष्यके वे ही पैर सफल हैं। श्रीहरिको दूसरा देवता समझते हैं, वे घोर नरकमें पड़ते तावेव धन्यावाख्यातौ यौ तु पूजाकरौ करौ। हैं; उन्हें श्रीहरि अपने भक्तोंमें नहीं गिनते। उत्तमानमुत्तमाकं तद्धरौ नप्रमेव यत् ।। २८॥ मूर्ख वा पण्डितं वापि ब्राह्मणं केशवप्रियम्। वे ही हाथ धन्य कहे गये हैं, जो भगवान्की पूजामें वपाकं वा मोचयति नारायणः स्वयं प्रभुः ॥ २२ ॥ संलग्न रहते हैं। जो मस्तक भगवानके आगे झुकता हो, पण्डित हो या मूर्ख, ब्राहाण हो या चाण्डाल, यदि वही उत्तम अङ्ग है। वह भगवान्का प्यारा भक्त है तो स्वयं भगवान् नारायण सा जिह्वा या हरि स्तौति तन्मनस्तत्पदानुगम् । उसे संकटोंसे छुड़ाते हैं। तानि लोमानि चोच्यन्ते यानि तन्नानि चोस्थितम् ।। २९ ॥ नारायणात्परो नास्ति पापराशिदवानलः। कुर्वन्ति तव नेत्राम्बु यदच्युतप्रसङ्गतः। कृत्वापि पातकं घोरं कृष्णनाना विमुच्यते ॥ २३ ॥ जीभ वही श्रेष्ठ है, जो भगवान् श्रीहरिकी स्तुति भगवान् नारायणसे बढ़कर दूसरा कोई ऐसा नहीं करती है। मन भी वही अच्छा है, जो उनके चरणोंका है, जो पापपुञ्जरूपी वनको जलानेके लिये दावानलके अनुगमन-चिन्तन करता है तथा रोएँ भी वे ही सार्थक समान हो। भयङ्कर पातक करके भी मनुष्य श्रीकृष्ण- कहलाते हैं, जो भगवान्का नाम लेनेपर खड़े हो जाते नामके उच्चारणसे मुक्त हो जाता है। .. . है। इसी प्रकार आँसू वे ही सार्थक हैं, जो भगवान्की स्वयं नारायणो देवः स्वनाम्नि जगतां गुरुः। चर्चाके अवसरपर निकलते हैं। आत्मनोऽभ्यधिकां शक्ति स्थापयामास सुव्रताः ॥ २४ ॥ अहो लोका अतितरां देवदोषेण वञ्चिताः ॥३०॥ उत्तम व्रतका पालन करनेवाले महर्षियो ! जगद्गुरु नामोशारणमात्रेण मुक्तिदं न भजन्ति वै। भगवान् नारायणने स्वयं ही अपने नाममें अपनेसे भी अहो ! संसारके लोग भाग्यदोषसे अत्यन्त वञ्चित अधिक शक्ति स्थापित कर दी है। हो रहे हैं, क्योंकि वे नामोच्चारणमात्रसे मुक्ति देनेवाले अत्र ये विवदन्ते वा आयासलघुदर्शनात् । भगवान्का भजन नहीं करते। फलानां गौरवाच्चापि ते यान्ति नरकं बहु ॥ २५ ॥ वञ्चितास्ते च कलुषाः स्त्रीणां सङ्गप्रसङ्गतः ॥ ३१ ॥ नाम-कीर्तनमें परिश्रम तो थोड़ा होता है, किन्तु प्रतिष्ठन्ति च लोमानि येषां नो कृष्णशब्दने। फल भारी-से-भारी प्राप्त होता है-यह देखकर जो लोग स्त्रियोंके स्पर्श एवं चर्चासे जिन्हें रोमाञ्च हो आता इसकी महिमाके विषयमें तर्क उपस्थित करते हैं, वे है, श्रीकृष्णका नाम लेनेपर नहीं, वे मलिन तथा अनेकों बार नरकमें पड़ते हैं। कल्याणसे वञ्चित हैं। तस्माद्धरौ भक्तिमान् स्याद्धरिनामपरायणः। ते मूर्खा ाकृतात्मानः पुत्रशोकादिविह्वलाः ।। ३२ ।। पूजकं पृष्ठतो रक्षेन्नामिनं वक्षसि प्रभु ॥ २६ ॥ रुदन्ति बहुलालापर्न कृष्णाक्षरकीर्तने । इसलिये हरिनामकी शरण लेकर भगवानकी जो अजितेन्द्रिय पुरुष पुत्रशोकादिसे व्याकुल भक्ति करनी चाहिये। प्रभु अपने पुजारीको तो पीछे होकर अत्यन्त विलाप करते हुए रोते हैं, किन्तु रखते हैं; किन्तु नाम-जप करनेवालेको छातीसे लगाये श्रीकृष्णनामके अक्षरोंका कीर्तन करते हुए नहीं रोते, वे रहते हैं। मूर्ख हैं।
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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