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________________ स्वर्गखण्ड ] . धर्मतीर्थ आदिकी महिमा, स्वर्ग तथा नरक में ले जानेवाले शुभाशुभ कर्मोका वर्णन . ३५३ कभी सवारी नहीं करते, वे स्वर्गलोकके निवासी होते हैं। देखनेवाले, सदा सब प्राणियोंपर दया करनेवाले, जो ब्राह्मण प्रतिदिन अग्निपूजा, देवपूजा, गुरुपूजा और दूसरोंकी गुप्त बातोंको प्रकट न करनेवाले तथा दूसरोंके द्विजपूजामें तत्पर रहते हैं, वे स्वर्गलोकमें जाते हैं। गुणोंका बखान करनेवाले हैं; जो दूसरेके धनको बावली, कुआँ और पोखरे बनवाने आदिके तिनकेके समान समझकर मनसे भी उसे लेना नहीं पुण्यका कभी अन्त नहीं होता; क्योंकि वहाँ जलचर और चाहते, ऐसे लोगोंको नरक-यातनाका अनुभव नहीं थलचर जीव सदा अपनी इच्छाके अनुसार जल पीते करना पड़ता। जो दूसरोंपर कलङ्क लगानेवाला, रहते हैं। देवता भी बावली आदि बनवानेवालेको नित्य पाखण्डी, महापापी और कठोर वचन बोलनेवाला है, दानपरायण कहते है। वैश्यवर ! प्राणी जैसे-जैसे वह प्रलयकालतक नरकमें पकाया जाता है। कृतघ्न बावली आदिका जल पीते हैं, वैसे-ही-वैसे धर्मकी वृद्धि पुरुषका तीर्थोके सेवन तथा तपस्यासे भी उद्धार नहीं होनेसे उसके बनवानेवाले मनुष्यके लिये स्वर्गका निवास होता। उसे नरकमें दीर्घकालतक भयङ्कर यातना सहन अक्षय होता जाता है। जल प्राणियोंका जीवन है। करनी पड़ती है। जो मनुष्य जितेन्द्रिय तथा मिताहारी जलके ही आधारपर प्राण टिके हुए हैं। पातकी मनुष्य होकर पृथ्वीके समस्त तीर्थोंमें स्नान करता है, वह भी प्रतिदिन स्नान करनेसे पवित्र हो जाते हैं। प्रातः- यमराजके घर नहीं जाता। तीर्थमें कभी पातक न करे, कालका स्रान बाहर और भीतरके मलको भी धो डालता तीर्थको कभी जीविकाका साधन न बनाये, तीर्थमें दान है। प्रातःस्नानसे निष्पाप होकर मनुष्य कभी नरकमें नहीं न ले तथा वहाँ धर्मको बेचे नहीं। तीर्थमें किये हुए पड़ता। जो बिना स्नान किये भोजन करता है, वह सदा पातकका क्षय होना कठिन है। तीर्थमें लिये हुए दानका मलका भोजन करनेवाला है। जो मनुष्य स्नान नहीं पचाना मुश्किल है। करता, देवता और पितर उससे विमुख हो जाते हैं। वह जो एक बार भी गङ्गाजीके जलमें स्नान करके अपवित्र माना गया है। वह नरक भोगकर कीट-योनिको गङ्गाजलसे पवित्र हो चुका है, उसने चाहे राशि-राशि प्राप्त होता है। पाप किये हों, फिर भी वह नरकमें नहीं पड़ता। हमारे जो लोग पर्वके दिन नदीकी धारामें स्नान करते हैं, सुननेमें आया है कि व्रत, दान, तप, यज्ञ तथा पवित्रताके वे न तो नरकमें पड़ते हैं और न किसी नीच योनिमें ही अन्यान्य साधन गङ्गाकी एक बूंदसे अभिषिक्त हुए जन्म लेते हैं। उनके लिये बुरे स्वप्र और बुरी चिन्ताएँ पुरुषकी समानता नहीं कर सकते।* जो धर्मद्रव सदा निष्फल होती हैं। विकुण्डल ! जो पृथ्वी, सुवर्ण (धर्मका ही द्रवीभूतस्वरूप) है, जलका आदि कारण है, और गौ-इनका सोलह बार दान करते हैं, वे स्वर्ग- भगवान् विष्णुके चरणोंसे प्रकट हुआ है तथा जिसे लोकमें जाकर फिर वहाँसे वापस नहीं आते। विद्वान् भगवान् शङ्करने अपने मस्तकपर धारण कर रखा है, वह पुरुष पुण्य तिथियोंमें, व्यतीपात योगमें तथा संक्रान्तिके गङ्गाजीका निर्मल जल प्रकृतिसे परे निर्गुण ब्रह्म ही हैसमय स्नान करके यदि थोड़ा-सा भी दान करे तो कभी इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। अतः ब्रह्माण्डके भीतर दुर्गतिमें नहीं पड़ता। जो मनुष्य सत्यवादी, सदा मौन ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो गङ्गाजलकी समानता कर धारण करनेवाले, प्रियवक्ता, क्रोधहीन, सदाचारी, सके। जो सौ योजन दूरसे भी 'गङ्गा, गङ्गा' कहता है, अधिक बकवाद न करनेवाले, दूसरोंके दोष न वह मनुष्य नरकमें नहीं पड़ता। फिर गङ्गाजीके समान * सकृद्रनाम्भसि सातः पूतो गाङ्गेयवारिणा । न नरो नरकं याति अपि पातकराशिकृत् ॥ व्रतदानतपोयज्ञाः पवित्राणीतराणि च। गङ्गाविन्दुभिषिक्तस्य न समा इति नः श्रुतम् ॥ (३१ ॥७२-७३)
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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