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________________ भूमिखण्ड ] • कुशलका अपने पुत्र विज्वलको उपदेश . . . . . . . . . . . . . . . . . कुञ्जलका अपने पुत्र विज्वलको उपदेश-महर्षि जैमिनिका सुबाहुसे दानकी महिमा कहना तथा नरक और स्वर्गमें जानेवाले पुरुषोंका वर्णनं: - तदनन्तर कुञ्जलने अपने पुत्र विज्वलको उपदेश दिन पुरोहितने राजा सुबाहुको सम्बोधित करके कहादेते हुए कहा-'बेटा ! प्रत्येक भोगमें शुभ और अशुभ 'राजन् ! आप उत्तम-उत्तम दान दीजिये। दानके ही कर्म ही कारण है। पुण्य-कर्मसे जीव सुख भोगता है प्रभावसे सुख भोगा जाता है। मनुष्य मरनेके पश्चात् और पाप-कर्मसे दुःखका अनुभव करता है। किसान दानके ही बलसे दुर्गम लोकोंको प्राप्त होता है। दानसे अपने खेतमें जैसा बीज बोता है, वैसा ही फल उसे प्राप्त सुख और सनातन यशकी प्राप्ति होती है। दानसे ही होता है। इसी प्रकार जैसा कर्म किया जाता है, वैसा ही मर्त्यलोकमें मनुष्यको उत्तम कीर्ति होती है। जबतक इस फलका उपभोग किया जाता है। इस शरीरके विनाशका जगत्में कीर्ति स्थिर रहती है, तबतक उसका कर्ता कारण भी कर्म ही है। हम सब लोग कर्मके अधीन हैं। स्वर्गलोकमें निवास करता है। अतः मनुष्योंको चाहिये संसारमें कर्म ही जीवोंकी संतान है। कर्म ही उनके कि वे पूर्ण प्रयत्न करके सदा दान करते रहें। वन्धु-बान्धव हैं तथा कर्म ही यहाँ पुरुषको सुख-दुःखमें राजाने पूछा-द्विजश्रेष्ठ ! दान और तपस्याप्रवृत्त करते हैं। जैसे किसानको उसके प्रयलके अनुसार इन दोमें दुष्कर कौन है? तथा परलोकमें जानेपर कौन खेतीका फल प्राप्त होता है, उसी प्रकार पूर्वजन्मका किया महान् फलको देनेवाला होता है? यह मुझे बतलाइये। हुआ कर्म ही कर्ताको मिलता है। जीव अपने कर्मोंके जैमिनि बोले-राजन् ! इस पृथ्वीपर दानसे अनुसार ही देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी और स्थावर बढ़कर दुष्कर कार्य दूसरा कोई नहीं है। यह बात प्रत्यक्ष योनियोंमें जन्म लेता है तथा उन योनियोंमें वह सदा देखी जाती है। सारा लोक इसका साक्षी है। संसारमें अपने किये हुए कर्मको ही भोगता है। दुःख और सुख लोभसे मोहित मनुष्य धनके लिये अपने प्यारे प्राणोकी दोनों अपने ही किये हुए कर्मोक फल हैं। जीव गर्भको भी परवा न करके समुद्र और घने जंगलों में प्रवेश कर शय्यापर सोकर पूर्व-शरीरके किये हुए शुभाशुभ कर्मोंका जाते हैं। कितने ही मनुष्य धनके लिये दूसरोंकी सेवातक फल भोगता है। पृथ्वीपर कोई भी पुरुष ऐसा नहीं है, जो स्वीकार कर लेते हैं। विद्वान् लोग धनके लिये पाठ करते पूर्वजन्मके किये हुए कर्मको अन्यथा कर सके। सभी हैं तथा दूसरे-दूसरे लोग धनकी इच्छासे ही हिंसापूर्ण जीव अपने कमाये हुए सुख-दुःखको ही भोगते है। और कष्टसाध्य कार्य करते हैं। इसी प्रकार कितने ही भोगके बिना किये हुए कर्मका नाश नहीं होता। लोग खेतीके कार्य में संलग्न होते हैं। इस तरह दुःख पूर्वजन्मके बन्धनस्वरूप कर्मको कौन मेटा सकता है। उठाकर कमाया हुआ धन प्राणोसे भी अधिक प्रिय जान - वेटा ! विषय एक प्रकारके विघ्न हैं। जरा आदि पड़ता है। ऐसे धनका परित्याग करना अत्यन्त कठिन अवस्थाएँ उपद्रव हैं। ये पूर्वजन्मके कर्मोंसे पीड़ित है। महाराज ! उसमें भी जो न्यायसे उपार्जित धन है, मनुष्यको पुनः-पुनः पीड़ा पहुंचाते रहते हैं। जिसको जहाँ उसे यदि श्रद्धापूर्वक विधिके अनुसार सुपात्रको दान भी सुख या दुःख भोगना होता है, दैव उसे बलपूर्वक दिया जाय तो उसका फल अनन्त होता है। श्रद्धा देवी वहाँ पहुँचा देता है, जीव कर्मोसे बँधा रहता है। धर्मकी पुत्री हैं, वे विश्वको पवित्र एवं अभ्युदयशील प्रारब्धको ही जीवोंके सुख-दुःखका उत्पादक बताया बनानेवाली हैं। इतना ही नहीं, वे सावित्रीके समान गया है। पावन, जगत्को उत्पन्न करनेवाली तथा संसारसागरसे महाप्राज्ञ ! चोल देशमें सुबाहु नामके एक राजा हो उद्धार करनेवाली हैं। आत्मवादी विद्वान् श्रद्धासे ही गये हैं। जैमिनि नामके ब्राह्मण उनके पुरोहित थे। एक धर्मका चिन्तन करते हैं। जिनके पास किसी भी वस्तुका
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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