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________________ ३०६ . अर्चयस्य हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पापुराण पीड़ित मनुष्यको मन्त्र, तप, दान, मित्र और बन्धु- दिया हो, उसकी रक्षा नहीं देखी जाती। यह मेरे बान्धव-कोई भी नहीं बचा सकते । विवाह, जन्म और पूर्वकर्मोका परिणाम ही है, दूसरा कुछ नहीं है। इस स्त्रीके मृत्यु-ये कालके रचे हुए तीन बन्धन है। ये जहाँ, जैसे रूपमें दैव ही यहाँ आ पहुँचा है, इसमें तनिक भी सन्देह और जिस हेतुसे होनेको होते हैं, होकर ही रहते हैं; कोई नहीं है। मेरे घरमें जो नाटक खेलनेवाले नट और नर्तक मेट उन्हें नहीं सकता।* उपद्रव, आघातदोष, सर्प और आये थे, उन्हींकि सङ्गसे मेरे शरीरमें जरावस्थाने प्रवेश व्याधियाँ-ये सभी कर्मसे प्रेरित होकर मनुष्यको प्राप्त किया है। इन सब बातोंको मैं अपने कर्मोका ही परिणाम होते हैं। आयु, कर्म, धन, विद्या और मृत्यु-ये पाँच मानता हूँ।' बातें जीवके गर्भ में रहते समय ही रच दी जाती हैं। इस प्रकारकी चिन्तामें पड़कर राजा ययाति बहुत जीवको देवत्व, मनुष्यत्व, पशु-पक्षी आदि तिर्यग्योनियाँ दुःखी हो गये। उन्होंने सोचा-'यदि मैं प्रसन्नतापूर्वक और स्थावर योनि-ये सब कुछ अपने-अपने इसकी बात नहीं मानूँगा तो मेरे सत्य और धर्म-दोनों कर्मानुसार ही प्राप्त होते हैं। मनुष्य जैसा करता है, वैसा ही चले जायेंगे, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। जैसा भोगता है; उसे अपने किये हुएको ही सदा भोगना पड़ता कर्म मैंने किया था, उसके अनुरूप ही फल आज है। वह अपना ही बनाया हुआ दुःख और अपना ही रचा दृष्टिगोचर हुआ है। यह निश्चित बात है कि दैवका विधान हुआ सुख भोगता है। जो लोग अपने धन और बुद्धिसे टाला नहीं जा सकता है।' किसी वस्तुको अन्यथा करनेकी युक्ति रखते हैं, वे भी इस तरह सोच-विचारमें पड़े हुए राजा ययाति अपने उपार्जित सुख-दुःखोंका उपभोग करते हैं। जैसे सबके केश दूर करनेवाले भगवान् श्रीहरिको शरणमें बछड़ा हजारों गौओंके बीचमें खड़ी होनेपर भी अपने गये। उन्होंने मन-ही-मन भगवान् मधुसूदनका ध्यान माताको पहचानकर उसके पास पहुँच जाता है, उसी और नमस्कारपूर्वक स्तवन किया तथा कातरभावसे प्रकार पूर्व-जन्मके किये हुए शुभाशुभ कर्म कर्ताका कहा-'लक्ष्मीपते ! मैं आपकी शरणमें आया हैं, आप अनुसरण करते हैं। पहलेका किया हुआ कर्म कर्ताके मेरा उद्धार कीजिये। सोनेपर उसके साथ ही सोता है, उसके खड़े होनेपर खड़ा सुकर्मा कहते हैं-परम धर्मात्मा राजा ययाति होता है और चलनेपर पीछे-पीछे चलता है। तात्पर्य यह इस प्रकार चिन्ता कर ही रहे थे कि रतिकुमारी देवी कि कर्म छायाकी भाँति कर्ताक साथ लगा रहता है। जैसे अश्रुबिन्दुमतीने कहा-'राजन्! अन्यान्य प्राकृत छाया और धूप सदा एक-दूसरेसे सम्बद्ध होते हैं, उसी मनुष्योंकी भाँति आप दुःखपूर्ण चिन्ता कैसे कर रहे हैं। प्रकार कर्म और कर्ताका भी परस्पर सम्बन्ध है। शस्त्र, जिसके कारण आपको दुःख हो, वह कार्य मुझे कभी नहीं अग्नि, विष आदिसे जो बचाने योग्य वस्तु है, उसको करना है। उसके यो कहनेपर राजाने उस वराङ्गनासे भी दैव ही बचाता है। जो वास्तवमें अरक्षित वस्तु है, कहा-'देवि ! मुझे जिस बातकी चिन्ता हुई है, उसे उसकी दैव ही रक्षा करता है। दैवने जिसका नाश कर बताता हैं, सुनो। मेरे स्वर्ग चले जानेपर सारी प्रजा दीन * न मन्त्रा न तपो दानं न मित्राणि न बान्धवाः । शकुवन्ति परित्रातु + कालेन पीडितम्॥ प्रयः कालकृताः पाशाः शक्यते न निवर्तितुम् । विवाो जन्म मरणं यथा यत्र च येन च। (८१ । ३३-३४) + पञ्चैतानि विसृज्यन्ते गर्भस्थस्यैव देहिनः । आयुः कर्म च वित्तं च विद्या निधनमेव च ॥ (८१।४१) * देवत्वमथ मानुष्यं पशुत्वं पक्षिता तथा । निर्यकत्वं स्थावरत्वं च प्राप्यते वै स्वकर्मभिः ।।
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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