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________________ ३०४ • अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् • ............................................................................................................***** w........................................................................ यदुने हाथ जोड़कर कहा - 'पिताजी! कृपा कीजिये। मैं बुढ़ापेका भार नहीं ढो सकता। शीतका कष्ट सहना, अधिक राह चलना, कदन भोजन करना, जिनकी जवानी बीत गयी हो ऐसी स्त्रियोंसे सम्पर्क रखना और मनकी प्रतिकूलताका सामना करना - ये वृद्धावस्थाके पाँच हेतु हैं।' यदुके यों कहनेपर महाराज ययातिने कुपित होकर उन्हें भी शाप दिया- 'जा, तेरा वंश राज्यहीन होगा, उसमें कभी कोई राजा न होगा।' यदुने कहा- -महाराज! मैं निर्दोष हूँ। आपने मुझे शाप क्यों दे दिया ? मुझ दीनपर दया कीजिये, प्रसन्न हो जाइये। ययाति बोले- बेटा ! महान् देवता भगवान् विष्णु जब तेरे वंशमें अपने अंशसहित अवतार लेंगे, उस समय तेरा कुल पवित्र - शापसे मुक्त हो जायगा । राजा ययातिने कुरुको शिशु समझकर छोड़ दिया और शर्मिष्ठाके पुत्र पुरुको बुलाकर कहा - 'बेटा! तू मेरी वृद्धावस्था ग्रहण कर ले।' पूरुने कहा- 'राजन्! मैं आपकी आशाका पालन करूंगा। मुझे अपनी वृद्धावस्था दीजिये और आज ही मेरी युवावस्थासे सुन्दर रूप धारण कर उत्तम भोग भोगिये।' यह सुनकर महामनस्वी राजाका चित्त अत्यन्त प्रसन्न हुआ। वे पूरुसे बोले- 'महामते ! तूने मेरी वृद्धावस्था ग्रहण की और अपना यौवन मुझे दिया; इसलिये मेरे दिये हुए राज्यका उपभोग कर।' अब राजाकी बिलकुल नयी अवस्था हो गयी। वे सोलह वर्षके तरुण प्रतीत होने लगे। देखनेमें अत्यन्त सुन्दर, मानो दूसरे कामदेव हों। महाराजने पूरुको अपना धनुष, राज्य, छत्र, घोड़ा, हाथी, धन, खजाना, देश, सेना, चँवर और व्यजन - सब कुछ दे डाला। धर्मात्मा नहुषकुमार अब कामात्मा हो गये। वे कामासक्त होकर बारंबार उस स्त्रीका चिन्तन करने लगे। उन्हें अपने पहले वृत्तान्तका स्मरण न रहा नयी जवानी पाकर वे बड़ी शीघ्रताके साथ कदम बढ़ाते हुए अश्रुबिन्दुमतीके पास गये। उस समय उनका चित्त कामसे उन्मत्त हो रहा था। वे विशाल नेत्रोंवाली विशालाको देखकर बोले- 'भद्रे ! मैं प्रबल दोषरूप [ संक्षिप्त पद्मपुराण ................................................... वृद्धावस्थाको त्यागकर यहाँ आया हूँ। अब मैं तरुण हूँ, अतः तुम्हारी सखी मुझे स्वीकार करे।' विशाला बोली- राजन् ! आप दोषरूपा जरावस्थाको त्यागकर आये हैं, यह बड़ी अच्छी बात है; परन्तु अब भी आप एक दोषसे लिप्त हैं, जिससे यह आपको स्वीकार करना नहीं चाहती। आपकी दो सुन्दर नेत्रोंवाली स्त्रियाँ हैं— शर्मिष्ठा और देवयानी। ऐसी दशामें आप मेरी इस सखीके वशमें कैसे रह सकेंगे ? जलती हुई आगमें समा जाना और पर्वतके शिखरसे कूद पड़ना अच्छा है; किन्तु रूप और तेजसे युक्त होनेपर भी ऐसे पतिसे विवाह करना अच्छा नहीं है, जो सौतरूपी विषसे युक्त हो । यद्यपि आप गुणोंके समुद्र हैं, तो भी इसी एक दोषके कारण यह आपको पति बनाना पसंद नहीं करती। ययातिने कहा- - शुभे! मुझे देवयानी और शर्मिष्ठासे कोई प्रयोजन नहीं है। इस बात के लिये मैं सत्यधर्मसे युक्त अपने शरीरको छूकर शपथ करता हूँ। अश्रुबिन्दुमती बोली- राजन्! मैं ही आपके राज्य और शरीरका उपभोग करूंगी। जिस-जिस कार्यके लिये मैं कहूँ, उसे आपको अवश्य पूर्ण करना होगा। इस बातका विश्वास दिलानेके लिये अपना हाथ मेरे हाथमें दीजिये। 773-15 ययातिने कहा- राजकुमारी! मैं तुम्हारी सिवा किसी दूसरी स्त्रीको नहीं ग्रहण करूंगा। वरानने! मेरा राज्य, समूची पृथ्वी, मेरा यह शरीर और खजाना - सबका तुम इच्छानुसार उपभोग करो। सुन्दरी! लो, मैंने तुम्हारे हाथमें अपना हाथ दे दिया। P अशुबिन्दुमती बोली- महाराज ! अब मैं आपकी पत्नी बनूँगी। इतना सुनते ही महाराज ययातिकी आँखें हर्षसे खिल उठीं; उन्होंने गान्धर्व विवाहकी विधिसे काम कुमारी अश्रुबिन्दुमतीको ग्रहण किया और युवावस्थाके द्वारा वे उसके साथ विहार करने लगे। अश्रुबिन्दुमतीमें आसक्त होकर वहाँ रहते हुए राजाको बीस हजार वर्ष बीत गये। इस प्रकार इन्द्रके लिये किये हुए कामदेवके प्रयोगसे उस स्त्रीने महाराजको भलीभाँति
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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