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________________ सृष्टिखण्ड] • पितरों तथा श्राद्धके विभिन्न अङ्गोंका वर्णन • है। इसीलिये अमावास्याके दिन किये हुए पार्वण राह न चलें, मैथुन न करें; साथ ही उस दिन स्वाध्याय, श्राद्धको 'अन्वाहार्य' कहा गया है। पहले अपने हाथमें कलह और दिनमें शयन-इन सबको सर्वथा त्याग दें। पवित्रीसहित तिल और जल लेकर पिण्डोंके आगे छोड़ इस विधिसे किया हुआ श्राद्ध धर्म, अर्थ और कामदे और कहे-'एषां स्वधा अस्तु' (ये पिण्ड स्वधा- तीनोंकी सिद्धि करनेवाला होता है। कन्या, कुम्भ और स्वरूप हो जायें) । इसके बाद परम पवित्र और उत्तम वृष राशिपर सूर्यके रहते कृष्णपक्षमें प्रतिदिन श्राद्ध करना अन्न परोसकर उसकी प्रशंसा करते हुए उन ब्राह्मणोंको चाहिये। जहाँ-जहाँ सपिण्डीकरणरूप श्राद्ध करना हो, भोजन करावे। उस समय भगवान् श्रीनारायणका स्मरण वहाँ अग्रिहोत्र करनेवाले पुरुषको सदा इसी विधिसे करता रहे और क्रोधी स्वभावको सर्वथा त्याग दे। करना चाहिये। ब्राह्मणोंको तृप्त जानकर विकिरान दान करे; यह सब अब मैं ब्रह्माजीके बताये हुए साधारण श्राद्धका वोंक लिये उचित है। विकिरान-दानकी विधि यह है। वर्णन करूँगा, जो भोग और मोक्षरूप फल प्रदान तिलसहित अन्न और जल लेकर उसे कुशके ऊपर करनेवाला है। उत्तरायण और दक्षिणायनके प्रारम्भके पृथ्वीपर रख दे। जब ब्राह्मण आचमन कर ले तो पुनः दिन, विषुव नामक योग (तुला और मेषकी संक्रान्ति) पिण्डोंपर जल गिरावे। फूल, अक्षत, जल छोड़ना और में [जब कि दिन और रात बराबर होते है], प्रत्येक स्वधावाचन आदि सारा कार्य पिण्डके ऊपर करे।' पहले अमावास्याको, प्रतिसंक्रान्तिके दिन, अष्टका (पौष, देवश्राद्धकी समाप्ति करके फिर पितृश्राद्धकी समाप्ति करे, माघ, फाल्गुन तथा आश्विन मासके कृष्णपक्षकी अष्टमी अन्यथा श्राद्धका नाश हो जाता है। इसके बाद तिथि) में, पूर्णिमाको, आर्द्रा, मघा और रोहिणी-इन नतमस्तक होकर ब्राह्मणोंकी प्रदक्षिणा करके उनका नक्षत्रोंमें, श्राद्धके योग्य उत्तम पदार्थ और सुपात्र विसर्जन करे। ब्राह्मणके प्राप्त होनेपर, व्यतीपात, विष्टि और वैधति . यह आहिताग्नि पुरुषोंके लिये अन्वाहार्य पार्वण योगके दिन, वैशाखकी तृतीयाको, कार्तिककी नवमीको, श्राद्ध बतलाया गया। अमावास्याके पर्वपर किये जानेके माघकी पूर्णिमा तथा भाद्रपदकी त्रयोदशी तिथिको भी कारण यह पार्वण कहलाता है। यही नैमित्तिक श्राद्ध है। श्राद्धका अनुष्ठान करना चाहिये। उपर्युक्त तिथियाँ श्राद्धके पिण्ड गाय या बकरीको खिला दे अथवा युगादि कहलाती हैं। ये पितरोंका उपकार करनेवाली हैं। ब्राह्मणोंको दे दे अथवा अग्नि या जलमें छोड़ दे। यह इसी प्रकार मन्वन्तरादि तिथियोंमें भी विद्वान् पुरुष भी न हो तो खेतमें बिखेर दे अथवा जलकी धारामें बहा श्राद्धका अनुष्ठान करे। आश्विन शुक्ला नवमी, कार्तिक दे। [सन्तानकी इच्छा रखनेवाली] पत्नी विनीत भावसे शुक्ला द्वादशी, चैत्र तथा भाद्रपदकी शुक्ला तृतीया, आकर मध्यम अर्थात् पितामहके पिण्डको ग्रहण करे फाल्गुनकी अमावास्या, पौषकी शुक्ला एकादशी, आषाढ़ और उसे खा जाय । उस समय 'आयत्त पितरो गर्भम्' शुक्ला दशमी, माघ शुक्ला सप्तमी, श्रावण कृष्णा अष्टमी, इत्यादि मन्त्रका उच्चारण करना चाहिये। श्राद्ध और आषाढ़, कार्तिक, फाल्गुन और ज्येष्ठकी पूर्णिमा-इन पिण्डदान आदिकी स्थिति तभीतक रहती है, जबतक तिथियोंको मन्वन्तरादि कहते हैं। ये दिये हुए दानको ब्राह्मणोंका विसर्जन नहीं हो जाता। इनके विसर्जनके अक्षय कर देनेवाली हैं। विज्ञ पुरुषको चाहिये कि पश्चात् पितृकार्य समाप्त हो जाता है। उसके बाद वैशाखकी पूर्णिमाको, ग्रहणके दिन, किसी उत्सवके बलिवैश्वदेव करना चाहिये। तदनन्तर अपने बन्धु- अवसरपर और महालय (आश्विन कृष्णपक्ष) में तीर्थ, बान्धवोंके साथ पितरोद्वारा सेवित प्रसादस्वरूप अत्र मन्दिर, गोशाला, द्वीप, उद्यान तथा घर आदिमें लिपे-पुते भोजन करे। श्राद्ध करनेवाले यजमान तथा श्राद्धभोजी एकान्त स्थानमें श्राद्ध करे।' ब्राह्मण दोनोंको उचित है कि वे दुबारा भोजन न करें, [अब श्राद्धके क्रमका वर्णन किया जाता है-]
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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