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________________ भूमिखण्ड ] . सुकर्माद्वारा ययाति और मातलिके संवादका उल्लेख . २८९ . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . ............ . .... ... जाती हैं। चार महीनोंमें क्रमशः अंगुली आदि अवयव जाय, उसी प्रकार गर्भरूपी कुम्भमें डाला हुआ जीव भी उत्पन्न हो जाते हैं। पांच महीनोंमें मुँह, नाक और जठराग्निसे पकाया जाता है। आगमें तपाकर लाल-लाल कान तैयार हो जाते हैं; छः महीनोंके भीतर दाँतोंके की हुई बहुत-सी सूइयोंसे निरन्तर शरीरको छेदनेपर मसूड़े, जिला तथा कानोंके छिद्र प्रकट होते हैं। सात जितना दुःख होता है, उससे आठगुना अधिक कष्ट महीनोंमें गुदा, लिङ्ग, अण्डकोष, उपस्थ तथा शरीरको गर्भमें होता है। गर्भवाससे बढ़कर कष्ट कहीं नहीं होता। सन्धियाँ प्रकट होती हैं। आठ मास बीतते-बीतते देहधारियोंके लिये गर्भ में रहना इतना भयंकर कष्ट है, शरीरका प्रत्येक अवयव, केशोसहित पूरा मस्तक तथा जिसकी कहीं तुलना नहीं है। इस प्रकार प्राणियोंके अङ्गोंकी पृथक्-पृथक् आकृतियाँ स्पष्ट हो जाती है। गर्भजनित दुःखका वर्णन किया गया। स्थावर और . माताके आहारसे जो छः प्रकारका रस मिलता है, जङ्गम-सभी प्राणियोंको अपने-अपने गर्भके अनुरूप उसीके बलसे गर्भस्थ बालककी प्रतिदिन पुष्टि होती है। कष्ट होता है। नाभिमें जो नाल बैंधा होता है, उसीके द्वारा बालकको जीवको जन्मके समय गर्भवासकी अपेक्षा करोड़रसकी प्राप्ति होती रहती है। तदनन्तर शरीरका पूर्ण गुनी अधिक पीड़ा होती है। जन्म लेते समय वह मूर्छित विकास हो जानेपर जीवको स्मरण-शक्ति प्राप्त होती है हो जाता है। उस समय उसका शरीर हड्डियोंसे युक्त तथा वह दुःख-सुखका अनुभव करने लगता है। उसे गोल आकारका होता है। स्नायुबन्धनसे बँधा रहता है। पूर्वजन्मके किये हुए कोका, यहाँतक कि निद्रा और रक्त, मांस और वसासे व्याप्त होता है। मल और मूत्र शयन आदिका भी स्मरण हो आता है। वह सोचने आदि अपवित्र वस्तुएँ उसमें जमा रहती हैं। केश, रोम लगता है-'मैंने अबतक हजारों योनियों में अनेकों बार और नखोसे युक्त तथा रोगका आश्रय होता है। चक्कर लगाया। इस समय अभी-अभी जन्म ले रहा हूँ, मनुष्यका यह शरीर जरा और शोकसे परिपूर्ण तथा मुझे पूर्वजन्मोकी स्मृति हो आयी है; अतः इस जन्म में मैं कालके अग्निमय मुखमें स्थित है। इसपर काम और वह कल्याणकारी कार्य करूँगा, जिससे मुझे फिर गर्भमे क्रोधके आक्रमण होते रहते है। यह भोगको तृष्णासे न आना पड़े। मैं यहाँसे निकलनेपर संसार-बन्धनकी आतुर, विवेकशून्य और रागद्वेषके वशीभूत होता है। निवृत्ति करनेवाले उत्तम ज्ञानको प्राप्त करनेका प्रयल इस देहमें तीन सौ साठ हड्डियाँ तथा पाँच सौ मांसकरूंगा।' पेशियाँ हैं. ऐसा समझना चाहिये। यह सब ओरसे साढ़े जीव गर्भवासके महान् दुःखसे पीड़ित हो कर्मवश तीन करोड़ रोमोंद्वारा व्याप्त है तथा स्थूल-सूक्ष्म एवं माताके उदरमें पड़ा-पड़ा अपने मोक्षका उपाय सोचता दृश्य-अदृश्यरूपसे उतनी ही नाड़ियाँ भी इसके भीतर रहता है। जैसे कोई पर्वतको गुफामें बंद हो जानेपर बड़े फैली हुई हैं। उन्होंक द्वारा भीतरका अपवित्र मल पसीने दुःखसे समय बिताता है, उसी प्रकार देहधारी जीव आदिके रूपमें निकलता रहता है। शरीरमें बत्तीस दाँत जरायु (जेर) के बन्धनमें बैंधकर बहुत दुःखी होता और और बीस नख होते हैं। देहके अंदर पित्त एक कुडव' बड़े कष्टसे उसमें रह पाता है। जैसे समुद्र गिरा हुआ और कफ आधा आढक' होता है। वसा तीन पल', मनुष्य दुःखसे छटपटाने लगता है, वैसे ही गर्भके जलसे कलल पंद्रह पल, वात अर्बुद पल, मेद दस पल, अभिषिक्त जीव अत्यन्त व्याकुल हो उठता है। जिस महारक्त तीन पल, मज्जा उससे चौगुनी (बारह पल), प्रकार किसीको लोहेके घड़े में बंद करके आगसे पकाया वीर्य आधा कुडव, बल चौथाई कुडव, मांस-पिण्ड १-आयुर्वेदके अनुसार ३२ तोले (६ छटाक २ तोले)का एक वजन । २-चार सेरके लगभगका एक तौल। ३-आयुर्वेदक अनुसार ८ तोलेका १ पल होता है। अन्यत्र ४ तोलेका एक पल माना गया है।
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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