SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 278
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७८ • अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . का . [संक्षिप्त पयपुराण गयी, क्रीड़ाके आगे खड़ी है। इस महाभागा सतीपर तुम रति और प्रीतिके साथ यहाँ रमण करो। सुकलाने प्रहार करो।' कहा-'जहाँ मेरे स्वामी है, वहीं मैं भी हैं। मैं सदा कामदेव बोला-सहस्रलोचन ! लीला और पतिके साथ रहती हूँ। मेरा काम, मेरी प्रीति सब वहीं है। चातुरीसे युक्त अपने दिव्य रूपको प्रकट कौजिये, यह शरीर तो निराश्रय है-छायामात्र है।' यह सुनकर जिसका आश्रय लेकर मैं इसके ऊपर अपने पाँचों रति और प्रीति दोनों लज्जित हो गयीं तथा महाबली बाणोंका पृथक्-पृथक् प्रहार करूँ। त्रिशूलधारी कामके पास जाकर बोली-'महाप्राज्ञ ! अब आप महादेवने मेरे रूपको पहले ही हर लिया। मेरा शरीर है अपना पुरुषार्थ छोड़ दीजिये, इस नारीको जीतना कठिन ही नहीं। जब मैं किसी नारीको अपने बाणोंका निशाना है। यह महाभागा पतिव्रता सदैव अपने पतिको हो बनाना चाहता हूँ, उस समय पुरुष-शरीरका आश्रय कामना रखती है। का, उस ITE लेकर अपने रूपको प्रकट करता हूँ। इसी तरह पुरुषपर कामदेवने कहा-देवि ! जब यह इन्द्रके रूपको प्रहार करनेके लिये मैं नारी-देहका आश्रय लेता हूँ। देखेगी, उस समय मैं अवश्य इसे घायल करूंगा। पुरुष जब पहले-पहल किसी सुन्दरी नारीको देखकर । तदनन्तर देवराज इन्द्र परम सुन्दर दिव्य वेष धारण बारम्बार उसीका चिन्तन करने लगता है, तब मैं चुपकेसे किये रतिके पोछे-पीछे चले; उनको गतिमें अत्यन्त उसके भीतर घुसकर उसे उन्मत्त बना देता हूँ। स्मरण- ललित विलास दृष्टिगोचर होता था। सब प्रकारके चिन्तनसे मेरा प्रादुर्भाव होता है। इसीलिये मेरा नाम आभूषण उनकी शोभा बढ़ा रहे थे। दिव्य माला, दिव्य 'स्मर' हो गया है। आज मैं आपके रूपका आश्रय लेकर वस्त्र और दिव्य गन्धसे सुसज्जित हो वे पतिव्रता इस नारीको अपनी इच्छाके अनुसार नचाऊँगा। सुकलाके पास आये और उससे इस प्रकार बोलेर यो कहकर कामदेव इन्द्रके शरीरमें घुस गया 'भद्रे ! मैंने पहले तुम्हारे सामने दूतो भेजी थी, फिर और पुण्यमयी क्कल-पत्नी सती सुकलाको घायल प्रीतिको रवाना किया। मेरो प्रार्थना क्यों नहीं मानती ? मैं करनेके लिये हाथमें याण ले उत्कण्ठापूर्वक अवसरकी स्वयं तुम्हारे पास आया हूँ, मुझे स्वीकार करो।' प्रतीक्षा करने लगा। वह उसके नेत्रोंको ही लक्ष्य सकला बोली-मेरे स्वामीके महात्मा पुत्र बनाये बैठा था। 17 (सल्य, धर्म आदि) मेरी रक्षा कर रहे हैं। मुझे किसीका - भगवान् श्रीविष्णु कहते हैं-राजन् ! क्रीड़ाकी भय नहीं है। अनेक शूरवीर पुरुष सर्वत्र मेरी रक्षाके प्रेरणासे उस सुन्दर वनमें गयी हुई वैश्यपनी सुकलाने लिये उद्यत रहते हैं। जबतक मेरे नेत्र खुले रहते हैं, पूछा-'सखी ! यह मनोरम दिव्य वन किसका है?' तबतक मैं निरन्तर पतिके ही कार्यमें लगी रहती हूँ। आप क्रीड़ा बोली-यह स्वभावसिद्ध दिव्य गुणोंसे कौन हैं, जो मृत्युका भी भय छोड़कर मेरे पास आये हैं ? युक्त सारा वन कामदेवका है, तुम भलीभाँति इसका इन्द्रने कहा-तुमने अपने स्वामीके जिन शूरवीर निरीक्षण करो। - पुत्रोंकी चर्चा की है, उन्हें मेरे सामने प्रकट करो ! मैं कैसे R दुरात्मा कामकी यह चेष्टा देखकर सुन्दरी सुकलाने उन्हें देख सकूँगा। वायुके द्वारा लायी हुई वहाँके फूलोंकी सुगन्धको नहीं सुकला बोली-इन्द्रिय-संयमके ... विभिन्न ग्रहण किया। उस सतीने वहाँके रसोंका भी आस्वादन गुणोंद्वारा उत्तम धर्म सदा मेरी रक्षा करता है। वह देखो, नहीं किया। यह देख कामदेवका मित्र वसन्त बहुत शान्ति और क्षमाके साथ सत्य मेरे सामने उपस्थित है। लज्जित हुआ। तत्पश्चात् कामदेवकी पत्नी रति-प्रीतिको महाबली सत्य बड़ा यशस्वी है। यह कभी मेरा त्याग साथ लेकर आयी और सुकलासे हँसकर बोली- नहीं करता। इस प्रकार धर्म आदि रक्षक सदा मेरी 'भद्रे । तुम्हारा कल्याण हो, मैं तुम्हारा स्वागत करती हूँ। देख-भाल किया करते हैं; फिर क्यों आप बलपूर्वक मुझे
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy