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________________ भूमिखण्ड ] • सुकलाका सतीत्व नष्ट करनेके लिये इन्द्र और काम आदिकी कुचेष्टा • २७५ . . . . . . .. . . . . . खजाना है, अपवित्र है; सदा ही क्षय होता रहता है। और धर्मसे युक्त था। उसके साहस, धैर्य और ज्ञानको शुभे ! यह पानीके बुलबुले के समान क्षणभङ्गर है। फिर आलोचना करके इन्द्र मन-ही-मन सोचने लगे-'इस इसके रूपका क्या वर्णन करती हो। पचास वर्षको पृथ्वीपर दूसरी कोई स्त्री ऐसी नहीं है, जो इस तरहकी अवस्थातक ही यह देह दृढ़ रहती है, उसके बाद प्रतिदिन बात कह सके। इसका वचन योगस्वरूप, निश्चयात्मक क्षीण होती जाती है। भला, बताओ तो, मेरे इस शरीरमें तथा ज्ञानरूपी जलसे प्रक्षालित है। इसमें सन्देह नहीं कि ही तुमने ऐसी क्या विशेषता देखी है, जो अन्यत्र नहीं है। यह महाभागा सुकला परम पवित्र और सत्यस्वरूपा है। उस पुरुषके शरीरसे मेरे शरीरमें कोई भी वस्तु अधिक यह समस्त त्रिलोकीको धारण करनेमें समर्थ है।' यह नहीं है। जैसी तुम, जैसा वह पुरुष, वैसी ही मैं—इसमें विचारकर इन्द्रने कामदेवसे कहा-'अब मैं तुम्हारे साथ तनिक ही सन्देह नहीं है, ऊँचे उठनेका परिणाम पतन ही कल-पली सुकलाको देखने चलेंगा।' कामदेवको है। ये बड़े-बड़े वृक्ष और पर्वत कालसे पीड़ित होकर अपने बलपर बड़ा घमंड था। वह जोशमें आकर इन्द्रसे नष्ट हो जाते हैं। यही दशा सम्पूर्ण भूतोंकी है-इसमें बोला-'देवराज ! जहाँ वह पतिव्रता रहती है, उस रत्तीभर भी संदेह नहीं। दूती ! आत्मा दिव्य है। वह स्थानपर चलिये। मैं अभी चलकर उसके ज्ञान, वीर्य, रूपहीन है। स्थावर-जङ्गम सभी प्राणियोंमें वह व्याप्त है। बल, धैर्य, सत्य और पातिव्रत्यको नष्ट कर डालेंगा। जैसे एक ही जल भिन्न-भिन्न घड़ोंमें रहता है, उसी प्रकार उसकी क्या शक्ति है, जो मेरे सामने टिक सके। एक ही शुद्ध आत्मा सम्पूर्ण भूतोंमें निवास करता है। कामदेवकी बात सुनकर इन्द्रने कहा-'काम ! मैं घड़ोंका नाश होनेसे जैसे सब जल मिलकर एक हो जाता जानता हूँ. यह पतिव्रता तुमसे परास्त होनेवाली नहीं है। है, उसी प्रकार आत्माकी भी एकता समझो। [स्थूल, यह अपने धर्ममय पराक्रमसे सुरक्षित है। इसका भाव सूक्ष्म और कारणरूप] त्रिविध शरीरका नाश होनेपर बहुत सच्चा है। यह नाना प्रकारके पुण्य किया करती है। पञ्चकोशके सम्बन्धसे पाँच प्रकारका प्रतीत होनेवाला फिर भी मैं यहाँसे चलकर तुम्हारे तेज, बल और भयंकर आत्मा एकरूप हो जाता है। संसारमें निवास करनेवाले पराक्रमको देखूगा।' यह कहकर इन्द्र धनुर्धर वीर प्राणियोंका मैंने सदा एक ही रूप देखा है। [किसीमें कोई कामदेवके साथ चले। उनके साथ कामकी पत्नी रति अपूर्वता नहीं है।] कामकी खुजलाहट सब प्राणियोंको और दूती भी थी। वह परम पुण्यमयी पतिव्रता अपने होती है। उस समय स्त्री और पुरुष दोनोकी इन्द्रियोमे घरके द्वारपर अकेली बैठी थी और केवल पतिके ध्यानमें उत्तेजना पैदा हो जाती है, जिससे वे दोनों प्रमत्त होकर तन्मय हो रही थी। वह प्राणोंको वशमें करके स्वामीका एक-दूसरेसे मिलते हैं। शरीरसे शरीरको रगड़ते हैं। चिन्तन करती हुई विकल्प-शून्य हो गयी थी। कोई भी इसीका नाम मैथुन है। इससे क्षणभरके लिये सुख होता पुरुष उसकी स्थितिकी कल्पना नहीं कर सकता था। उस है, फिर वैसी ही दशा हो जाती है। दूती ! सर्वत्र यही समय इन्द्र अनुपम तेज और सौन्दर्यसे युक्त, विलास बात देखी जाती है। इसलिये अब तुम अपने स्थानको तथा हाव-भावसे सुशोभित अत्यन्त अद्भुत रूप धारण लौट जाओ। तुम्हारे प्रस्तावित कार्यमें कोई नवीनता नहीं करके सुकलाके सामने प्रकट हुए । उत्तम विलास और है। कम-से-कम मेरे लिये तो इसमें कोई अपूर्व बात नहीं कामभावसे युक्त महापुरुषको इस प्रकार सामने विचरण जान पड़ती; अतः मैं कदापि ऐसा नहीं कर सकती। करते देख महात्मा कृकल वैश्यकी पत्नीने उसके रूप, भगवान् श्रीविष्णु कहते हैं-सुकलाके यों गुण और तेजका तनिक भी सम्मान नहीं किया। जैसे कहनेपर दूती चली गयी। उसने इन्द्रसे उसकी कही हुई कमलके पत्तेपर छोड़ा हुआ जल उस पत्तेको छोड़कर दूर सारी बातें संक्षेपमें सुना दी। सुकलाका भाषण सत्य चला जाता है--उसमें ठहरता नहीं, उसी प्रकार वह संप पु. १०
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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