SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 269
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भूमिखण्ड ] . शूकरीद्वारा अपने पूर्वजन्मका वर्णन तथा रानी सुदेवाके पुण्यसे उसका उद्धार • २६९ रमणीय पर्वत, दूसरी ओर मनोहर वनस्थली और बीचमें वास्तवमें तो वह राजाके वेषमें नीच दानव गोभिल ही स्वच्छ जलसे भरा सर्वतोभद्र नामक तालाब है। था। पद्मावती विचार करने लगी-मेरे धर्मपरायण बालोचित चपलता, नारी-स्वभाव और खेल-कूदकी स्वामी मथुरानरेश अपना राज्य छोड़कर इतनी दूर कब रुचि-इन सबका प्रभाव उसके ऊपर पड़ा। वह और कैसे चले आये? वह इस प्रकार सोच ही रही थी सहेलियोंके साथ तालावमें उतर पड़ी और हँसती-गाती कि उस पापीने स्वयं ही पुकारा-'प्रिये ! आओ, आओ; हुई जल-क्रीड़ा करने लगी। देवि ! तुम्हारे बिना मैं नहीं जी सकता । सुन्दरी ! तुमसे इसी समय कुबेरका सेवक गोभिल नामक दैत्य अलग रहकर मेरे लिये इस प्रिय जीवनका भार वहन दिव्य विमानपर बैठकर आकाशमार्गसे कहीं जा रहा करना भी असम्भव हो गया है। तुम्हारे नेहने मुझे मोह था। तालावके ऊपर आनेपर उसकी दृष्टि विशाल लिया है; अतः मैं तुम्हें छोड़कर कहीं नहीं रह सकता।' नेत्रोंवाली विदर्भ-राजकुमारी पद्मावतीपर पड़ी, जो निर्भय पतिरूपधारी दैत्यके ऐसा कहनेपर पद्मावती कुछ होकर स्रान कर रही थी। गोभिलकी ज्ञान-शक्ति बहुत लज्जित-सी होकर उसके सामने गयी। वह पद्मावतीका बढ़ी हुई थी, उसने निश्चित रूपसे जान लिया कि 'यह हाथ पकड़कर उसे एकान्त स्थानमें ले गया और वहाँ विदर्भ-नरेशकी कन्या और महाराज उग्रसेनकी प्यारी अपनी इच्छाके अनुसार उसका उपभोग किया। महाराज पत्नी है। परन्तु यह तो पतिव्रता होनेके कारण उग्रसेनके गुप्त अङ्गमें कुछ खास निशानी थी, जो उस आत्मवलसे ही सुरक्षित है, परपुरुषोंके लिये इसे प्राप्त पुरुषमें नहीं दिखायी दी। इससे सुन्दरी पद्मावतीके मनमें करना नितान्त कठिन है। उग्रसेन महामूर्ख है, जो उसने उसके प्रति सन्देह उत्पन्न हुआ। राजकुमारीने अपने वल ऐसी सुन्दरी पत्नीको मायके भेज दिया है। आह ! यह सँभालकर पहन लिये; किन्तु उसके हृदयमें इस घटनासे पतिव्रता नारी पराये पुरुषके लिये दुर्लभ है, इधर बड़ा दुःख हुआ। वह क्रोधमें भरकर नीच दानव कामदेव मुझे अत्यन्त पीड़ा दे रहा है। मैं किस प्रकार गोभिलसे बोली-'ओ नीच ! जल्दी बता, तू कौन इसके निकट जाऊँ और कैसे इसका उपभोग करूँ?' है? तेरा आकार दानव-जैसा है, तू पापाचारी और इसी उधेड़-बुनमें पड़े-पड़े उसने अपने लिये एक उपाय निर्दयी है।' यह कहते-कहते आत्मग्लानिके कारण निकाल लिया। गोभिलने महाराज उप्रसेनका मायामय उसकी आँखें भर आयीं। वह शाप देनेको उद्यत होकर रूप धारण किया। वह ज्यों-का-त्यों उग्रसेन बन गया। बोली-दुरात्मन् ! तूने मेरे पतिके रूपमें आकर मेरे वही अङ्ग, वही उपाङ्ग, वैसे ही वस्त्र, उसी तरहका वेष साथ छल किया और इस धर्ममय शरीरको अपवित्र और वही अवस्था । पूर्णरूपसे उग्रसेन-सा होकर वह करके मेरे उत्तम पातिव्रत्यका नाश कर डाला है। अब पर्वतके शिखरपर उतरा और एक अशोकवृक्षकी छायामें यहीं तू मेरा भी प्रभाव देख ले, मैं तुझे अत्यन्त कठोर शिलाके ऊपर बैठकर उसने मधुर स्वरसे सङ्गीत शाप दूंगी।' छेड़ दिया। वह गीत सम्पूर्ण विश्वको मोहित करनेवाला उसकी बात सुनकर गोभिलने कहा-'पतिव्रता था। ताल, लय और उत्तम स्वरसे युक्त उस मधुर स्त्री, भगवान् श्रीविष्णु तथा उत्तम ब्राह्मणके भयसे तो गानको सखियोंके मध्य में बैठी हुई सुन्दरी पद्यावतीने भी समस्त राक्षस और दानव दूर भागते हैं। मैं दानव-धर्मके सुना । वह सोचने लगी-कौन गायक यह गीत गा रहा अनुसार ही इस पृथ्वीपर विचर रहा हूँ। पहले मेरे दोषका है? राजकुमारीके मनमें उसे देखनेकी उत्कण्ठा हुई। विचार करो, किस अपराधपर तुम मुझे शाप देनेको उसने सखियोंके साथ जाकर देखा, अशोककी छायामें उद्यत हुई हो?' उज्ज्वल शिलाखण्डके ऊपर बैठा हुआ कोई पुरुष गा पद्मावती बोली-पापी ! मैं साध्वी और रहा है; वह महाराज उग्रसेन-सा ही जान पड़ता है। पतिव्रता हूँ, मेरे मन में केवल अपने पतिकी कामना
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy