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________________ भूमिखण्ड ] . श्रीविष्णुद्वारा नैमित्तिक और आभ्युदयिक आदि दानोंका वर्णन, सती सुकलाकी कथा . २५९ . . . . . --- - ---- बिगड़ जायगा। रास्तेमें कठोर पत्थरोंसे ठोकर खाकर भी छोड़ दूंगी। जबतक मेरे स्वामीका पुनः यहाँ आगमन इसके कोमल चरणोंको बड़ी पीड़ा होगी। उस अवस्थामें नहीं होगा, तबतक एक समय भोजन करूंगी अथवा इसका चलना असम्भव हो जायगा। भूख-प्याससे जब उपवास करके रह जाऊंगी।' इसके शरीरको कष्ट पहुँचेगा तो न जाने इसकी क्या दशा इस प्रकार नियम लेकर सुकला बड़े दुःखसे दिन होगी। यह सदा मुझे प्राणोंसे भी बढ़कर प्रिय है तथा बिताने लगी। उसने एक वेणी धारण करना आरम्भ कर नित्य-निरन्तर मेरे गार्हस्थ्यधर्मका यही एक आधार है। दिया। एक ही अंगियासे वह अपने शरीरको ढकने यह बाला यदि मर गयी तो मेरा तो सर्वनाश ही हो लगी। उसका वेष मलिन हो गया। वह एक ही मलिन जायगा। यही मेरे जीवनका अवलम्बन है, यही मेरे वस्त्र धारण करके रहती और अत्यन्त दुःखित हो लंबी प्राणोंकी अधीश्वरी है। अतः मैं इसे तीर्थोंमें नहीं ले साँस खींचती हुई हाहाकार किया करती थी। विरहानिसे जाऊँगा, अकेला ही यात्रा करूंगा।' दग्ध होनेके कारण उसका शरीर काला पड़ गया। उसपर - यह सोचकर उन्होंने अपनी पत्नीसे कहा-मैं तेरा मैल जम गया। इस तरह दुःखमय आचारका पालन कभी त्याग नहीं करूंगा। पता दिये बिना ही वे चुपकेसे करनेसे वह अत्यन्त दुबली हो गयी । निरन्तर पतिके लिये साथियोंके साथ चले गये। महाभाग कृकल बड़े व्याकुल रहने लगी। दिन-रात रोती रहती थी। रातको उसे पुण्यात्मा थे; उनके चले जानेपर सुन्दरी सुकला कभी नींद नहीं आती थी और न भूख ही लगती थी। देवाराधनको बेलामें पुण्यमय प्रभातके समय जब सोकर सुकलाकी यह अवस्था देख उसकी सहेलियोने उठी, तब उसने स्वामीको घरमें नहीं देखा। फिर तो वह आकर पूछा-'सखी सुकला ! तुम इस समय रो क्यों हड़बड़ाकर उठ बैठी और अत्यन्त शोकसे पीड़ित होकर रही हो? सुमुखि ! हमें अपने दुःखका कारण बताओ।' रोने लगी। वह बाला अपने पतिके साथियोंके पास सुकला बोली-सखियो! मेरे धर्मपरायण जा-जाकर पूछने लगी- 'महाभागगण ! आपलोग मेरे स्वामी मुझे छोड़कर धर्म कमाने गये हैं। मैं निदोष, बन्धु हैं, मेरे प्राणनाथ कृकल मुझे छोड़कर कहीं चले साध्वी, सदाचार-परायणा और पतिव्रता हूँ। फिर भी मेरे गये हैं; यदि आपने उन्हें देखा हो तो बताइये। जिन प्राणाधार मेरा त्याग करके तीर्थ-यात्रा कर रहे हैं; इसीसे महात्माओंने मेरे पुण्यात्मा स्वामीको देखा हो, वे मुझे मैं दुःखी हूँ। उनके वियोगसे मुझे बड़ी पीड़ा हो रही है। बतानेकी कृपा करें।' उसकी बात सुनकर जानकार सखी ! प्राण त्याग देना अच्छा है, किन्तु प्राणाधार लोगोंने उससे परम बुद्धिमान् कृकलके विषयमें इस स्वामीका त्यागना कदापि अच्छा नहीं है। प्रतिदिनका यह प्रकार कहा-'शुभे! तुम्हारे स्वामी कृकल धार्मिक दारुण वियोग अब मुझसे नहीं सहा जाता। सखियो ! यात्राके प्रसङ्गसे तीर्थसेवनके लिये गये है। तुम शोक यही मेरे दुःखका कारण है। नित्यके विरहसे ही मैं कष्ट क्यों करती हो? भद्रे ! वे बड़े-बड़े तीर्थोकी यात्रा पूरी पा रही हैं। करके फिर लौट आयेंगे।' सखियोंने कहा-बहिन! तुम्हारे पति राजन् ! विश्वासी पुरुषोंके द्वारा इस प्रकार विश्वास तीर्थ यात्राके लिये गये हैं। यात्रा पूरी होनेपर वे घर लौट दिलाये जानेपर सुकला पुनः अपने घरमें गयी और करुण आयेंगे। तुम व्यर्थ ही शोक कर रही हो। वृथा ही अपने स्वरसे फूट-फूटकर रोने लगी। वह पतिपरायणा नारी थी। शरीरको सुखा रही हो तथा अकारण ही भोगोंका परित्याग उसने यह निश्चय कर लिया कि 'जबतक मेरे स्वामी कर रही हो। अरी ! मौजसे खाओ-पीयो; क्यों कष्ट लौटकर नहीं आयेंगे, तबतक मैं भूमिपर चटाई बिछाकर उठाती हो। कौन किसका स्वामी, कौन किसके पुत्र और सोऊँगी। घी, तेल और दूध-दी नहीं खाऊँगी। पान और कौन किसके सगे-सम्बन्धी हैं? संसारमें कोई किसीका नमकका भी त्याग कर दूंगी। गुड़ आदि मीठी वस्तुओंको नहीं है। किसीके साथ भी नित्य सम्बन्ध नहीं है। बाले!
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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