SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 252
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५२ • अयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पापुराण छद्मवेषधारी पुरुषके द्वारा जैन-धर्मका वर्णन, उसके बहकावेमें आकर वेनकी पापमें प्रवृत्ति और सप्तर्षियोंद्वारा उसकी भुजाओंका मन्थन ऋषियोंने पूछा-सूतजी ! जब इस प्रकार राजा वेनका वचन सुनकर उस पुरुषने उत्तर दिया-'तुम इस वेनकी उत्पत्ति ही महात्मा पुरुषसे हुई थी, तब उन्होंने प्रकार धर्मके पचड़ेमें पड़कर जो राज्य चला रहे हो, वह धर्ममय आचरणका परित्याग करके पापमें कैसे मन सब व्यर्थ है। तुम बड़े मूढ़ जान पड़ते हो। [मेरा लगाया? परिचय जानना चाहते हो तो सुनो] मैं देवताओंका परम सूतजी बोले-वेनकी जिस प्रकार पापाचारमें पूज्य हूँ। मैं ही ज्ञान, मैं ही सत्य और मैं ही सनातन ब्रह्म प्रवृत्ति हुई, वह सब बात मैं बता रहा हूँ। धर्मके ज्ञाता हूँ। मोक्ष भी मैं ही हूँ। मैं ब्रह्माजीके देहसे उत्पन्न प्रजापालक राजा वेन जब शासन कर रहे थे, उस समय सत्यप्रतिज्ञ पुरुष हूँ। मुझे जिनस्वरूप जानो। सत्य और कोई पुरुष छद्मवेष धारण किये उनके दरबारमें आया। धर्म ही मेरा कलेवर है। ज्ञानपरायण योगी मेरे ही उसका नंग-धडंग रूप, विशाल शरीर और सफेद सिर स्वरूपका ध्यान करते हैं। था। वह बड़ा कान्तिमान् जान पड़ता था। काँखमें वेनने पूछा-आपका धर्म कैसा है? आपका मोरपंखकी बनी हुई मार्जनी (ओघा) दबाये और एक शास्त्र क्या है ? तथा आप किस आचारका पालन करते हाथमें नारियलका जलपात्र (कमण्डलु) धारण किये हैं? ये सब बातें बताइये। वह वेद-शास्त्रोको दूषित करनेवाले शास्त्रका पाठ कर जिन बोला-जहाँ 'अर्हन्' देवता, निर्ग्रन्थ गुरु रहा था। जहाँ महाराज वेन बैठे थे, उसी स्थानपर वह और दयाको ही परम धर्म बताया गया है, वहीं मोक्ष बड़ी उतावलीके साथ पहुँचा। उसे आया देख वेनने देखा जाता है। यही जैन-दर्शन है। इसमें तनिक भी पूछा-'आप कौन हैं, जो ऐसा अद्भुत रूप धारण किये सन्देह नहीं है। अब मैं अपने आचार बतला रहा हूँ। मेरे यहाँ आये हैं ? मेरे सामने सब बातें सच-सच बताइये।' मतमें यजन-याजन और वेदाध्ययन नहीं है । सन्ध्योपासन भी नहीं है। तपस्या, दान, स्वधा (श्राद्ध) और स्वाहा (अग्निहोत्र)का भी परित्याग किया गया है। हव्य-कव्य आदिकी भी आवश्यकता नहीं है। यज्ञयागादि क्रियाओंका भी अभाव है। पितरोंका तर्पण, अतिथियोंका सत्कार तथा बलिवैश्वदेव आदि कोका भी विधान नहीं किया गया है। केवल 'अर्हन्' का ध्यान ही उत्तम माना गया है। जैन-मार्गमें प्रायः ऐसे धर्मका आचरण ही दृष्टिगोचर होता है। प्राणियोंका यह शरीर पाँचों तत्त्वोंसे ही बनता और परिपुष्ट होता है। आत्मा वायुस्वरूप है; अतः श्राद्ध और यज्ञ आदि क्रियाओंकी कोई आवश्यकता नहीं है। जैसे पानीमें जल-जन्तुओंका समागम होता है तथा जिस प्रकार बुलबुले पैदा होते और विलीन हो जाते हैं, उसी प्रकार संसारमें समस्त प्राणियोंका आवागमन होता
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy