SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 222
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२२ अर्थयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् **************** चरणों में पड़ गये और बोले— 'पिताजी! मैं दूसरे किसीको ऐसा नहीं देखता, जो तपस्या, गुण-समुदाय और उत्तम पुण्यसे युक्त होकर आपकी समानता कर सके। फिर भी आपको यह क्या हो गया ? विप्रवर! सम्पूर्ण देवता सदा दासकी भाँति आपकी आज्ञाके पालनमें लगे रहते हैं। वे आपके तेजसे खिंचकर यहाँ आ जाते हैं। आप इतने शक्तिशाली हैं तो भी किस पापके कारण आपके शरीरमें यह पीड़ा देनेवाला रोग हो गया ? ब्राह्मणश्रेष्ठ ! इसका कारण बताइये। यह मेरी माता भी पुण्यवती है, इसका पुण्य महान् है; यह पतिव्रत धर्मका पालन करनेवाली है। यह अपने स्वामीकी कृपासे समूची त्रिलोकीको भी धारण करनेमें समर्थ है। जो राग-द्वेषका परित्याग करके भाँति-भाँति के कमद्वारा अपने पतिदेवका पूजन करती है, देवताओंकी ही भाँति गुरुजनोंके प्रति भी जिसके हृदयमें आदरका भाव है, वह मेरी माता क्यों इस कष्टकारी कुष्ठरोगका दुःख भोग रही है ?" शिवशर्मा बोले - महाभाग ! तुम शोक न करो; सबको अपने कमौका ही फल भोगना पड़ता है; क्योंकि मनुष्य प्रायः [ पूर्वकृत ] पाप और पुण्यमय कर्मोंसे युक्त [ संक्षिप्त पद्मपुराण होता ही है। अब तुम हम दोनों रोगियोंके घावोंको धोकर साफ करो । 1 पिताका यह शुभ वाक्य सुनकर महायशस्वी सोमशर्माने कहा1- आप दोनों पुण्यात्मा हैं; मैं आपकी सेवा अवश्य करूंगा। माता-पिताकी शुश्रूषाके सिवा मेरा और कर्तव्य ही क्या है।' सोमशर्मा उन दोनोंके दुःखसे दुःखी थे। वे माता-पिताके मल-मूत्र तथा कफ आदि धोते अपने हाथसे उनके चरण पखारते और दवाया करते थे। उनके रहने और नहाने आदिका प्रबन्ध भी वे पूर्ण भक्तिके साथ स्वयं ही करते थे। विप्रवर सोमशर्मा बड़े यशस्वी, धर्मात्मा और सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ थे। वे अपने दोनों गुरुजनोंको कंधेपर बिठाकर तीर्थो में ले जाया करते थे। वे वेदके ज्ञाता थे; अतः माङ्गलिक मन्त्रोका उच्चारण करके दोनोंको अपने हाथसे विधिपूर्वक नहलाते और स्वयं भी स्नान करते थे। फिर पितरोंका तर्पण और देवताओंका पूजन भी वे उन दोनोंसे प्रतिदिन कराया करते थे। स्वयं अग्निमें होम करते और अपने दोनों महागुरु माता-पिताको प्रसन्न करते हुए अपने सब कार्य उन्हें बताया करते थे। सोमशर्मा उन दोनोंको प्रतिदिन शय्यापर सुलाते और उन्हें वस्त्र तथा पुष्प आदि सब सामग्री निवेदन करते थे। परम सुगन्धित पान लगाकर माता-पिताको अर्पण करते तथा नित्यप्रति उनकी इच्छाके अनुसार फल, मूल, दूध आदि उत्तमोत्तम भोज्य पदार्थ खानेको देते थे। इस क्रमसे वे सदा ही माता-पिताको प्रसन्न रखनेकी चेष्टा करते थे। पिता सोमशर्माको बुलाकर उन्हें नाना प्रकारके कठोर एवं दुःखदायी वचनोंसे पीड़ित करते और आतुर होकर उन्हें डंडोंसे पीटते भी थे। यह सब करनेपर भी धर्मात्मा सोमशर्मा कभी पिताके ऊपर क्रोध नहीं करते थे। वे सदा सन्तुष्ट रहकर मन, वाणी और क्रिया- तीनोंके ही द्वारा पिताकी पूजा करते थे। ये सब बातें जानकर शिवशर्मा अपने चरित्रपर विचार करने लगे। उन्होंने सोचा- 'सोमशर्माका मेरी सेवामें अधिक अनुराग दिखायी देता है, इसीलिये
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy