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________________ १८८ • अर्बयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पद्मपुराण सेवन, सुवर्णकी चोरी, पापियोंके साथ चिरकालतक प्रकारके पापोंसे लदे हुए पतिको भी पापमुक्त करके संसर्ग रखना-ये तथा और भी जितने बड़े-बड़े पाप अपने साथ स्वर्गमें ले जाती है। जो मरे हुए पतिके पीछे एवं पातक हैं, वे सब मेरा नाम लेनेसे तत्काल नष्ट हो प्राण-त्याग करके जाती है, उसे स्वर्गकी प्राप्ति निश्चित है। जाते हैं; ठीक उसी तरह जैसे अग्निके पास पहुँचनेपर जो नारी पतिका अनुगमन करती है, वह मनुष्यके शरीरमें रूईके ढेर जल जाते हैं। अतः मनुष्यको उचित है कि जितने (साढ़े तीन करोड़) रोम होते हैं, इतने ही वर्षातक वह मेरे 'गोविन्द' नामका स्मरण करके पवित्र हो जाय स्वर्गलोकमें निवास करती है। यदि पतिकी मृत्यु कहीं दूर [परन्तु जो नामके भरोसे पाप करता है, नाम उसकी रक्षा हो जाय तो उसका कोई चिह्न पाकर जो स्त्री चिताकी कभी नहीं करता।] अथवा जो प्रतिदिन मुझ गोविन्दका अग्निमें प्राण-त्याग करती है, वह अपने पतिका पापसे कीर्तन और पूजन करते हुए गृहस्थाश्रममें निवास करता उद्धार कर देती है। जो स्त्री पतिव्रता होती है, उसे चाहिये है, वह पापसे तर जाता है। तात ! गङ्गाके रमणीय कि यदि पतिकी मृत्यु परदेशमें हो जाय तो उसका कोई तटपर चन्द्रग्रहणकी मङ्गलमयी वेलामें करोड़ों गोदान चिह्न प्राप्त करे और उसे ही ले अग्निमें शयन करके करनेसे मनुष्यको जो फल मिलता है, उससे हजारगुना स्वर्गलोककी यात्रा करे। यदि ब्राह्मण जातिकी स्त्री मरे अधिक फल 'गोविन्द' का कीर्तन करनेसे प्राप्त होता है। हुए पतिके साथ चिताग्निमें प्रवेश करे तो उसे कीर्तन करनेवाला मनुष्य मेरे वैकुण्ठधाममें सदा निवास आत्मघातका दोष लगता है, जिससे न तो वह अपनेको करता है।* पुराणमें मेरी कथा सुननेसे मानव मेरी और न अपने पतिको ही स्वर्गमें पहुँचा पाती है। इसलिये समानता प्राप्त करता है। जो पुराणकी कथा सुनाता है, ब्राह्मण जातिकी स्त्री अपने मरे हुए पतिके साथ जलकर उसे मेरा सायुज्य प्राप्त होता है; अतः प्रतिदिन पुराणका न मरे–यह ब्रह्माजीकी आज्ञा है। ब्राह्मणी विधवाको श्रवण करना चाहिये। पुराण धर्मोका संग्रह है। वैधव्य-व्रतका आचरण करना चाहिये। जो विधवा विप्रवर ! अब मैं सती स्त्रियोंमें जो अत्यन्त उत्कृष्ट एकादशीका व्रत नहीं रखती, वह दूसरे जन्ममें भी गुण होते हैं, उनका वर्णन करता हूँ। सती स्त्रीका वंश विधवा ही होती है तथा प्रत्येक जन्ममें दुर्भाग्यसे पीड़ित शुद्ध होता है। वहाँ सदा लक्ष्मी निवास करती हैं। रहती है। मछली-मांस खाने और व्रत न करनेसे वह सतीके पितृकुल और पतिकुल-दोनों कुलोंको तथा चिरकालतक नरकमें रहकर फिर कुत्तेकी योनिमें जन्म उसके स्वामीको भी स्वर्गलोककी प्राप्ति होती है। जो लेती है। जो कुलनाशिनी विधवा दुराचारिणी होकर स्त्रियाँ अपने जीवनका पूर्वकाल पुण्य-पापमिश्रित कर्मोंमें मैथुन कराती है, वह नरक-यातना भोगनेके पश्चात् दस व्यतीत करके पीछे भी पतिव्रता होती है, उन्हें भी मेरे जन्मोतक गीधिनी होती है। फिर दो जन्मोतक लोमड़ी लोककी प्राप्ति हो जाती है। जो स्त्री अपने स्वामीका होकर पीछे मनुष्य-योनिमें जन्म लेती है। उसमें भी अनुगमन करती है, वह शराबी, ब्रह्महत्यारे तथा सब बाल-विधवा होकर दासीभावको प्राप्त होती है। *यो वै गृहाश्रमं त्यक्त्वा मचित्तो जायते नरः । नित्यं स्मरति गोविन्दं सर्वपापक्षयो भवेत्॥ ब्रह्महत्यायुतं तेन कृर्त गुर्वङ्गनागमः । शतं शतसहस्रं च पैष्टीमद्यस्य भक्षणम् ।। वदिहरणं चैव तेषां संसर्गकश्चिरम् । एतान्यन्यानि पापानि महान्ति पातकानि च। अग्निं प्राप्य यथा तूलं तृणमाशु प्रणश्यति । तस्मात्मनाम गोविन्दं स्मृत्वा पूतो भवेत्ररः॥ यो वा गृहाश्रमे तिष्ठेत्रित्य गोविन्दधोषणम् । कृत्वा च पूजयित्वा च स पापात्सतरो भवेत्॥ भागीरथीतटे रम्ये खगस्य ग्रहणे शिवे । गर्या कोटिप्रदानेन यत्फलं लभते नरः ॥ तत्फलं समवाप्नोति सहस्र चाधिक च यत् । गोविन्दकीर्तने तात मत्पुरे चाक्षय वसत् ॥ (४९:५०-५६)
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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